मक्काबियों का पहला ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • पवित्र बाईबल
अध्याय 6
1. जब अन्तियोख पहाड़ी प्रान्तों का दौरा कर रहा था, तो उसने सुना कि फा़रस देश का एलिमईस नगर अपनी सम्पत्ति और सोना-चाँदी के लिए प्रसिद्ध है।
2. और यह कि वहाँ का मन्दिर अत्यन्त समृद्ध है और उस में वे स्वर्ण ढालें, कवच और अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित हैं, जिन्हें फ़िलिप के पुत्र सिकन्दर, मकेदूनिया के राजा और यूनानियों के प्रथम शासक, ने वहाँ छोड़ दिया था।
3. इसलिए वह उस नगर पर अधिकार करने और उसे लूटने के उद्देश्य से चल पडा, किन्तु वह ऐसा नहीं कर पाया; क्योंकि नागरिकों को उस अभियान का पता चल गया था।
4. उन्होंने हथियार ले कर उसका सामना किया और उसे भागना पड़ा। उसने दुःखी हो कर वहाँ से बाबुुल के लिए प्रस्थान किया।
5. वह फा़रस में ही था, जब उसे यह समाचार मिला कि जो सेना यहूदिया पर आक्रमण करने निकली थी, वह पराजित हो कर भाग रही है।
6. लीसियस एक विशाल सेना ले कर वहा गया था, किन्तु उसे यहूदियों के सामने से पीछे हट जाना पड़ा। अब यहूदी अपने अस्त्रों, अपने सैनिकों की संख्या और पराजित सेनाओं की लूट के कारण शक्तिशाली बन गये थे।
7. उन्होंने येरुसालेम की होम-वेदी पर अन्तियोख द्वारा स्थापित घृणित मूर्ति को ढाह दिया, पहले की तरह मन्दिर के चारों ओर ऊँची दीवार बनवायी और उसके नगर बेत-सूर की भी क़िलाबन्दी की।
8. राजा यह सुन कर चकित रह गया वह बहुत घबराया, पलंग पर लेट गया और दुःख के कारण बीमार हो गया; क्योंकि वह जो चाहता था, वह नहीं हो पाया था।
9. वह इस तरह बहुत दिनों तक पड़ा रहा, क्योंकि एक गहरा विषाद उस पर छाया रहा। तब वह समझने लगा कि वह मरने को है
10. और उसने अपने सब मित्रों को बुला कर उन से कहा, “मुझे नींद नहीं आती और मेरा हृदय शोक से टूट गया है।
11. मैंने पहले अपने मन में कहा, मैं कितना कष्ट सह रहा हूँ ओर मुझ पर दुःख का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है। मैं तो अपने शासन के दिनों दयालु और लोकप्रिय था।
12. किन्तु अब मुझे याद आ रहा है कि मैंने येरुसालेम के साथ कितना अत्याचार किया- मैं वहाँ के चाँदी और सोने के पात्र चुरा कर ले गया और मैंने अकारण यूदा के निवासियों को मारने का आदेश दिया।
13. मुझे लगता है कि मैं इसी से ये कष्ट भोग रहा हूँऔर गहरे शोक के कारण यहाँ विदेश में मर रहा हूँ”
14. उसने अपने मित्र फ़िलिप को बुलाया और उसे अपने समस्त राज्य का प्रधान नियुक्त किया।
15. उसने उसे अपना मुकुट, अपने राजकीय वस्त्र तथा अपनी अंगूठी दी और उसे अपने पुत्र अन्तियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा।
16. राजा अन्तियोख की मृत्यु एक सौ उनचासवें वर्ष में हुई।
17. इधर जब लीसियस ने सुना कि राजा की मृत्यु हो गयी है, तो उसने उसके पुत्र अंतियोख को राजगद्दी पर बैठाया। उसने बचपन से उसकी शिक्षा का प्रबन्द किया था और अब उसने उसका नाम यूपातोर रखा।
18. येरुसालेम के गढ़ के लोग मन्दिर के आसपास के इस्राएलियों को तंग करते, हर समय उन को हानि पहुँचाते और गै़र-यहूदियों की सहायता करते थे।
19. इसलिए यूदाह ने उसका विनाश करने का निश्चय किया और उन्हें घेरने के लिए सब लोगों को इकट्ठा किया।
20. लोग आये और उन पर घेरा डाल दिया। जब एक सौ पचासवाँ वर्ष चल रहा था। शिला-प्रक्षेपक और अन्य यंत्र तैयार किये गये;
21. किन्तु घिरे हुए लोगों में कुछ निकल कर भाग गये।
22. इस्राएल के कुछ विधर्मी लोगों ने उनका साथ दिया और राजा के पास जा कर कहा, “हमें न्याय दिलाने और हमारे भाईयों का प्रतिशोध लेने में आप कब तक देर करेंगे?
23. हम आपके पिता के विश्वस्त सेवक रह चुके हैंऔर उनके सभी आदेशों का पालन करते आये है।
24. इसलिए हमारी जाति के लोगों ने हमें घेर लिया है और हमारे शत्रु बन गये है। हम में से जो भी उन्हें मिल जाता है, वे उसे मार डालते हैं। हमारी सम्पत्ति लूट ली गयी है
25. और उन्होंने न केवल हम पर, बल्कि आपके अधीन के क्षेत्रों पर भी आक्रमण किया।
26. वे अब येरुसालेम के गढ पर अधिकार करने के लिए उस पर घेरा डाले हुए हैं और उन्होंने मंदिर और बेत–सूर को क़िलाबन्दी किया है।
27. यदि आप उन्हें जल्द ही नहीं रोकेंगे, तो वे आगे न जाने क्या कर बैठेंगे। फिर वे आपके वश के नहीं रहेंगे।”
28. यह सुन कर राजा क्रुद्ध हो उठा उसने अपने सभी मित्रों, सेनापतियों और रसद के अधिकारियों को बुला भेजा।
29. अन्य राजाओं और समुद्र के द्वीपों से भी उसके यहाँ किराये के सौनिक आये।
30. उसके सैनिक बल में एक लाख पैदल सैनिक, बीस हज़ार घुड़सवार और बत्तीस युद्धकुशल हाथी थे।
31. वे इदुमैया होते हुए आगे बढ़े और उन्होंने बेत-सूर के सामने पड़ाव डाला। वे बहुत दिनों तक यन्श्रों के सहारे उनके विरुद्ध युद्ध करते रहे। किन्तु जो लोग घिर पडे़ थे, वे निकल कर टूट पड़ते और यन्त्र जलाते। वे वीरतापूर्वक लड़ते रहे।
32. यूदाह ने गढ़ से चल कर बेत-जकर्या के पास राजा के पड़ाव के सामने पड़ाव डाला।
33. दूसरे दिन सुबह होते ही राजा ने सेना को बेत-ज़कर्या की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया। वहाँ दोनों सेनाएँ पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी गयी और तुरहियाँ बजने लगी।
34. हाथियों को दाखरस और जैतून के रस द्वारा युद्ध के लिए उत्तेजित किया गया।
35. वे हाथी सेना के विभिन्न जत्थों में बाँटे गये। एक-एक हाथी के साथ पाँच सौ घुड़सवारों के अतिरिक्त एक हजार सैनिक खडे़ किये गये, जो कवच और काँसे के टोप पहने थे।
36. घुड़सवार हाथी के आगे-आगे चलते थे और जहाँ वह जाता था, वे उसके साथ-साथ जाते थे और सदा उसके पास रहते थे।
37. सुरक्षा के लिए प्रत्येक हाथी की पीठ पर लकड़ी का एक मज़बूत हौदा बँधा था और प्रत्येक के ऊपर तीन-तीन सशस्त्र सैनिक और एक भारतीय महावत था।
38. शेष घुड़सवारों को सेना के दोनों छोरों पर खड़ा कर दिया गया। वे बीच-बीच में शत्रु पर छापा मारते और दलों की रक्षा करते थे।
39. जब सूर्य कि किरणें सोने और काँसे की ढालों पर चमकती, तो पर्वत उन से जगमगाने लगते। ऐसा लगता कि वहाँ मशालें जल रही हों।
40. राजकीय सेना का एक दल पहाड़ियों पर और दूसरा मैदान में था। वे सुव्यवस्थित रुप से आगे की ओर बढ़ते थे।
41. जो कोई आती हुई भीड़ का कोलाहल और शस्त्रों की झंकार सुनता, वह घबरा जाता था। सेना बहुत बड़ी और शक्तिशाली थी।
42. यूदाह अपनी सेना के साथ आक्रमण करने आगे बढ़ा और राजा की सेना के लगभग छः सौ आदमी मारे गये।
43. तभी एलआज़ार अवरन की दृष्टि राजकीय कवच पहने सबसे से बड़े हाथी पर पड़ी। इसलिए उसने सोचा कि राजा उसी पर सवार है।
44. तब वह अपनी जाति की रक्षा करने और अपना नाम अमर करने के लिए प्राण न्योछावर करने को तैयार हो गया।
45. वह दल के बीच में साहसपूर्वक अपने दायें-बायें के सौनिकों पर प्रहर करते हुए उस पशु की ओर बढ़ा।
46. उसने हाथी के नीचे जा कर और उसके पेट में शस्त्र मार कर उसका वध किया। हाथी उसके ऊपर आ गिरा और इस तरह वह भी वही दब कर मर गया।
47. यहूदी राजकीय सेना की शक्ति और उत्साह देख कर पीछे हट गये।
48. इसके बाद राजकीय सेना उन से लड़ने के लिए येरुसालेम तब आ पहुँची। राजा यहूदिया और सियोन पर्वत पर आक्रमण की तैयारियाँ करने लगा।
49. इसी बीच राजा ने बेत-सूर के लोगों से सन्धि कर ली। वे नगर के बाहर आ गये। उन दिनों देश का विश्राम-वर्ष चल रहा था, इसलिए उनके पास खाद्य सामग्री की कमी थी और वे अधिक दिन वहाँ घेरे में नहीं रह सकते थे।
50. इसलिए राजा ने बेत-सूर पर अधिकार कर लिया और उसे एक दल की निगरानी में रख दिया।
51. वह बहुत दिन तक मन्दिर पर घेरा डाले रहा, उसके सामने मंच और यन्त्र लगाये, जो आग, पत्थर और वाण फेंकते थे और गोफान-जैसे यंत्र भी लगाये।
52. इधर घेरे में पडे़ हुए लोगों ने भी उनके विरुद्ध यन्त्र लगाये और इस तरह लड़ाई बहुत दिनों तक चलती रही।
53. भण्डारों में खाद्य-समाग्री समाप्त हो गयी; क्योंकि सातवाँ वर्ष चल रहा था और गै़र-यहूदियों के यहाँ से आये यहूदियों ने रसद खाया था।
54. अब मन्दिर के पास थोड़े ही सैनिक रह गये थे, क्योंकि जब वे भूख से छटपटाने लगे, तो वे अपने-अपने घर लौट गये।
55. लीसियस को पता चला कि फ़िलिप, जिसे राजा अन्तियोख ने मरते समय अपने पुत्र अंतियोख को सुयोग्य राजा बनने की शिक्षा दिलाने को कहा,
56. फा़रस और मोदिया से लौट आया हैं और उसके साथ वह सेना भी हैं, जो राजा के साथ गयी थी। उसने यह भी सुना कि वह राज्य पर अधिकार कर लेना चाहता है।
57. इसलिए लीसियस शीघ्र ही वहाँ से चले जाने की तैयारियाँ करने लगा। उसने राजा, सेनापतियों और सैनिकों से कहा, “हम प्रतिदिन कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं, दिन-पर-दिन सामग्री कम होती जा रही है और यह जगह, जिसका हम घेरा कर रहे हैं, बहुत सुदृढ़ है। इसके अतिरिक्त हमें अपने राज्य का भी ध्यान रखना चाहिए।
58. इसलिए हम इन लोगों से हाथ मिला कर इन से और इस समस्त राष्ट्र से सन्धि क्यों न कर लें?
59. हम उन्हें यह अनुमति दें कि वे पहले की तरह, अपने रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन बितायें; क्योंकि हमने उनके रीति-रिवाजों को समाप्त करने का प्रयत्न किया और इस कारण उनका क्रोध भड़क उठा और उन्होंने विद्रोह किया।”
60. राजा और सेनापति यह प्रस्ताव मान गये। राजा ने उनके पास सन्धि का सन्देश भेजा और वे लोग राजी हो गये।
61. जब राजा और सेनापतियों ने उन्हें शपथपूर्वक वचन दिया, तो वे गढ़़ से बाहर आये।
62. तब राजा सियोन पर्वत गया। उसने उस स्थान की क़िलाबन्दी देख कर अपनी शपथ भंग कर दी और आदेश दिया कि चारदीवारी गिरा दी जाये।
63. इसके बाद वह जल्द ही वहाँ से अन्तियोख की ओर चल पडा। वहाँ उसने देखा कि फ़िलिप नगर का अध्यक्ष बन गया है। इसलिए वह, उस पर टूट पड़ा और बलपूर्वक नगर पर अधिकार कर लिया।