वर्ष का तैंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह, बुधवार
📒 पहला पाठ : प्रकाशना 4:1-11
1) इसके बाद मैंने एक दिव्य दृश्य देखा। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक द्वार खुला है और वह तुरही-जैसी वाणी, जिसे मैंने पहले अपने से बाते करते सुना था, बोल रही है- “यहाँ, ऊपर आओं। मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि बाद मे क्या होने वाला है।
2) मैं तुरन्त आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक सिंहासन रखा हुआ है और उस पर कोई विराजमान है,
3) जिसका रूप-रंग सूर्यकान्त एवं रूधिराख्य के सदृश है और सिंहासन के चारों ओर मरकतमणि-जैसा एक आधा-मण्डल है।
4) सिंहासन के चारों और चैबीस सिंहासन रखे हुए है और उन पर चैबीस वयोवृद्ध विराजमान हैं। वे उजले वस्त्र पहने हैं और उनके सिर पर सोने के मुकुट हैं।
5) सिंहासन से बिजलियाँ, वाणियाँ और मेघ-गर्जन निकल रहे हैं। सिंहासन के सामने आग की सात मशाले जल रही हैं; वे ईश्वर के सात आत्मा हैं।
6) सिंहासन के आसपास का फर्श मानो स्फटिक-सदृश पारदर्शी समुद्र है। बीच में, सिंहासन के आसपास चार प्राणी हैं। वे आगे और पीछे की ओर आँखों से भरे हुए हैं।
7) पहला प्राणी सिंह के सदृश है और दूसरा प्राणी साँड़ के सदृश। तीसरे प्राणी का चेहरा मनुष्य-जैसा है
8) चारों प्राणियों के छः-छः पंख है। वे भीतर बाहर आँखों से भरे हुए हैं और दिन-रात निरन्तर यह कहते रहते हैं- पवित्र, पवित्र, पवित्र सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर, जो था, जो है और जो आने वाला है!
9) जब-जब प्राणी सिंहासन पर विराजमान, युग-युगों तक जीवित रहने वाले को महिमा, सम्मान और धन्यवाद देते हैं,
10) तब तब चैबीस वयोवृद्ध सिंहासन पर विराजमान को दण्डवत् कहते हैं, युग-युगों तक जीवित रहने वाले की आराधना करते और यह कहते हुए सिंहासन के सामने अपने मुकुट डाल देते हैं-
11) हमारे पुभु-ईश्वर! तू महिमा, सम्मान और सामर्थ्य का अधिकारी है; क्योंकि तूने विश्व की सृष्टि की। तेरी इच्छा से वह अस्तित्व में आया और उसकी सृष्टि हुई है।”
📙 सुसमाचार : लूकस 19:11-28
11) जब लोग ये बातें सुन रहे थे, तो ईसा ने एक दृष्टान्त भी सुनाया; क्योंकि ईसा को येरूसालेम के निकट पा कर वे यह समझ रहे थे कि ईश्वर का राज्य तुरन्त प्रकट होने वाला है।
12) उन्होंने कहा, “एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश चला गया।
13) उसने अपने दस सेवकों को बुलाया और उन्हें एक-एक अशर्फ़ी दे कर कहा, ‘मेरे लौटने तक व्यापार करो’।
14) “उसके नगर-निवासी उस से बैर करते थे और उन्होंने उसके पीछे एक प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा कहला भेजा कि हम नहीं चाहते कि वह मनुष्य हम पर राज्य करे।
15) “वह राजपद पा कर लौटा और उसने जिन सेवकों को धन दिया था, उन्हें बुला भेजा और यह जानना चाहा कि प्रत्येक ने व्यापार से कितना कमाया है।
16) पहले ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने दस अशर्फि़य़ाँ कमायी हैं’।
17) स्वामी ने उस से कहा, ‘शाबाश, भले सेवक! तुम छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार निकले, इसलिए तुम्हें दस नगरों पर अधिकार मिलेगा’।
18) दूसरे ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने पाँच अशर्फि़याँ कमायी हैं’
19) और स्वामी ने उस से भी कहा, ‘तुम्हें पाँच नगरों पर अधिकार मिलेगा’।
20) अब तीसरे ने आ कर कहा, ’स्वामी! देखिए, यह है आपकी अशर्फ़ी। मैंने इसे अँगोछे में बाँध रखा था।
21) मैं आप से डरता था, क्योंकि आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं।’
22) स्वामी ने उस से कहा, ‘दुष्ट सेवक! मैं तेरे ही शब्दों से तेरा न्याय करूँगा। तू जानता था कि मैं कठोर हूँ। मैंने जो जमा नहीं किया, मैं उसे निकालता हूँ और जो नहीं बोया, उसे लुनता हूँ।
23) तो, तूने मेरा धन महाजन के यहाँ क्यों नहीं रख दिया? तब मैं लौट कर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।’
24) और स्वामी ने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ‘इस से वह अशर्फ़ी ले लो और जिसके पास दस अशर्फि़याँ हैं, उसी को दे दो’।
25) उन्होंने उस से कहा, ‘स्वामी! उसके पास तो दस अशर्फि़याँ हैं’।
26) “मैं तुम से कहता हूँ – जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
27) और मेरे बैरियों को, जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, इधर ला कर मेरे सामने मार डालो’।
28) इतना कह कर ईसा येरूसालेम की ओर आगे बढ़े।