मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ
अध्याय 7
1 किसी अवसर पर सात भाई अपनी माता के साथ गिरफ़्तार हो गये थे। राजा उन्हें कोड़े लगवा कर और यन्त्रणा दिला कर बाध्य करना चाहता था कि वे सूअर का मांस खायें, जो संहिता में मना किया गया है।
2 उन में से एक ने दूसरों का प्रतिनिधि बन कर कहा, “तुम हम लोगों से क्या चाहते हो? अपने पूर्वजों की संहिता का उल्लंघन करने की अपेक्षा हम मर जाना अधिक पसन्द करेंगे।’-
3 इस पर राजा क्रुद्ध हो उठा और उसके कड़ाह और हण्डे आग पर चढ़ाने की आज्ञा दी।
4 जब ऐसा किया गया, तो उसने फिर आदेश दिया कि जो व्यक्ति सब से पहले बोला था, उसकी जीभ काट दी जाये, उसके सिर की चमड़ी उतार ली जाये और उसके हाथ-पाँव काट दिये जायें। उसके दूसरे भाइयों और माँ की आँखों के सामने ही ऐसा किया गया।
5 वह व्यक्ति अभी ज़िन्दा ही था, तभी उसकी क्षत-विक्षत देह को आग के पास ले जाया गया और उसे कड़ाह में तपाया गया। जब कड़ाह से धुआँ ऊपर उठने लगा, तो दूसरे भाइयों और उनकी माता ने एक दूसरे को उत्साहित किया, जिससे वे साहस के साथ मत्यु का सामना करें। उन्होंने कहा,
6 “प्रभु-ईश्वर हमें देख रहा है और जैसा कि मूसा ने अपने भजन में सुस्पष्ट शब्दों में कहा: ’वह अपने सेवकों पर दया करेगा’ वह निश्चय ही हमें सान्त्वना प्रदान करेगा”।
7 जब पहला इस प्रकार मारा गया, तो दूसरे को लाया गया, जिससे उसे भी घोर यातना दी जाये। उसके सिर की चमड़ी बालों-सहित उतार दी गयी और उस से कहा गया, “क्या तू भी नहीं खायेगा? तो समझ ले कि तेरे शरीर के एक-एक अंग को यन्त्रणा दी जायेगी।”
8 उसने अपनी मातृभाषा में कहा, “मैं नही खाऊँगा”। इस पर पहले की ही तरह उसे भी यातानाएँ दी गयीं।
9 उसने प्राण त्यागते समय कहा, “दुष्ट! तुम हम से यह जीवन छीन ले सकते हो, किन्तु संसार का राजा, जिसके नियमों के लिए हम मर रहे हैं, हमें पुनर्जीवित कर अनन्त जीवन प्रदान करेगा”।
10 इसके बाद वे तीसरे भाई को उत्पीड़ित करने लगे। जब उस से जीभ निकालने को कहा गया, तो उसने ऐसा ही किया।
11 और यह कर कर निधड़क अपने हाथ बढ़ाये, “ईश्वर की ओर से मुझे ये अंग मिले और उसके नियमों की रक्षा के लिए मैं इनकी परवाह नहीं करता। मेरा विश्वास है कि ईश्वर इन्हें मुझ को लौटा देगा।”
12 राजा और उसके परिजन युवक का साहस तथा यातनाओं में उसका धैर्य देख कर अचम्भे में पड़ गये।
13 जब वह मर गया, तो वे चौथे भाई को इसी प्रकार की घोर यातनाएँ देने लगे।
14 वह मरते समय चिल्ला उठा, “यह अच्छा ही है कि हम मनुष्यों के हाथ पर जायें, क्योंकि हमें ईश्वर की इस प्रतिज्ञा पर भरोसा हैं कि वह हमें पुनर्जीवित कर देगा। किन्तु जीवन के लिए तुम्हारा पुनरुत्थान नहीं होगा।”
15 इसके बाद पाँचवें को लाया गया और उसे भी यातना दी गयी।
16 उसने राजा की ओर देख कर कहा, “तुम नश्वर हो, फिर भी तुम को यह सामर्थ्य दिया गया है कि तुम जैसा चाहो, कर सकते हो। किन्तु यह मत समझो कि ईश्वर ने हमारी जाति का त्याग किया है।
17 तुम धीरज के साथ प्रतीक्षा करोगे, तो देखोगे कि उसका महिमामय सामर्थ्य तुम को और तुम्हारे वंशजों को किस प्रकार उत्पीड़ित करेगा।”
18 तब छठा लाया गया। उसने प्राण त्यागते समय कहा, “तुम धोखा मत खाओ। हमें ये दण्ड मिल रहे हैं और हम पर भी असाधारण विपत्तियाँ इसलिए पड़ रही हैं कि हमने अपने ईश्वर के विरुद्ध पाप किया है।
19 किन्तु तुम यह न सोचो कि ईश्वर के विरुद्ध लड़ने का साहस करने के बाद तुम दण्ड से बच जाओगे।”
20 माता विशेष रूप से प्रंशसनीय तथा प्रातः स्मरणीय है। एक ही दिन में अपने सात पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मरते देख कर भी वह विचलित नहीं हुई; क्योंकि वह प्रभु पर भरोसा रखती थी।
21 वह अपने पूर्वजों की भाषा में हर एक का साहस बँधाती रही। उच्च संकल्प से प्रेरित हो कर तथा अपने नारी-हृदय में पुरुष का तेज भर कर, वह अपने पुत्रों से यह कहती थी,
22 “मुझे नहीं मालूम कि तुम कैसे मेरे गर्भ में आये। मैंने न तो तुम्हें प्राण तथा जीवन प्रदान किया और न तुम्हारे अंगों की रचना की।
23 संसार का सृष्टिकर्ता मानव जाति की रचना करता और सब कुछ उत्पन्न करता है। वह दया कर तुम्हें अवश्य ही फिर प्राण तथा जीवन प्रदान करेगा; क्योंकि तुम उसकी विधियों की रक्षा के लिए अपने जीवन का तिरस्कार कर रहे हो।”
24 अन्तियोख को लगा कि वह उसका तिरस्कार और निन्दा कर रही है। अब केवल उसका सब से छोटा पुत्र जीवित रहा। अन्तियोख ने उसे समझाया ही नहीं, बल्कि शपथ खा कर आश्वासन भी दिया कि “यदि तुम अपने पूर्वजों के रीति-रिवाजों का परित्याग करोगे, तो मैं तुम को धन और सुख प्रदान करूँगा, तुम्हें अपना मित्र बना कर उच्च पद पर नियुक्त करूँगा”।
25 जब नवयुवक ने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया, तो अन्तियोख ने माता को बुला भेजा और उस से अनुरोध किया कि वह नवयुवक को समझाये, जिससे वह जीवित रह सके।
26 राजा के कई बार अनुरोध करने के बाद वह अपने पुत्र को समझाने को राज़ी हो गयी।
27 वह उस पर झुक गयी और क्रूर तानाशाह की अवज्ञा करते हुए उसके पूर्वजों की भाषा में उस से यह कहा, “बेटा! मुझ पर दया करो। मैंने तुम्हें नौ महीनों तक गर्भ में धारण किया और तीन वर्षों तक दूध पिलाया। मैंने तुम्हें खिलाया और तुम्हारी इस उमर तक तुम्हारा पालन-पोषण किया।
28 बेटा! मैं तुम से अनुरोध करती हूँ। तुम आकाश तथा पृथ्वी की ओर देखो- उन में जो कुछ है, उसका निरीक्षण करो और यह समझ लो कि ईश्वर ने शून्य से उसकी सृष्टि की है। मनुष्य भी इस प्रकार उत्पन्न हुआ है।
29 इस जल्लाद से मत डरो। अपने भाइयों के योग्य बनो और मृत्यु स्वीकार करो, जिससे मैं दया के दिन तुम्हें अपने भाइयों के साथ फिर पा सकूँ।”
30 जब वह ऐसा कह चुकी थी, तो नवयुवक तुरन्त ही बोल उठा “तुम देर क्यों करते हो? मैं राजा का आदेश नहीं मानूँगा। मैं अपने पुरखों को मूसा द्वारा प्रदत्त संहिता के नियमों का पालन करता हूँ।
31 और तुम, राजा अन्तियोख! जिसने इब्रानियों पर हर प्रकार का अत्याचार किया, तुम ईश्वर के हाथ से नहीं बच सकोगे।
32 हम अपने पापों के कारण दुःख झेल रहे हैं।
33 यदि हमारा जीवन्त ईश्वर हमें दण्ड देने और हमारा सुधार करने के लिए थोडे़ ही समय तक हम पर क्रोध प्रकट करता हैं, तो वह फिर अपने सेवकों पर दया करेगा।
34 किन्तु तुम, जो मनुष्यों में सब से दुष्ट और नीच हो और ईश्वर के सेवकों पर हाथ उठाते हो, घमण्डी बन कर व्यर्थ आशा मत करो।
35 तुम सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ ईश्वर के न्याय से नहीं बच सकोगे।
36 हमारे भाई थोडे़ समय के लिए दुःख सहने के बाद अब ईश्वर के विधान के कारण अनन्त जीवन का जल पीते हैं। लेकिन ईश्वर की ओर से तुम्हें अपने अहंकार का उचित दण्ड मिलेगा।
37 मैं अपने भाइयों की तरह अपने पूर्वजों की संहिता पर शरीर और जीवन-सब कुछ न्योछावर कर रहा हूँ और ईश्वर से यह निवेदन कर रहा हूँ कि वह शीघ्र ही मेरी जाति पर फिर से दया करे और तुम को भी विपत्तियों की मार से यह समझा दे कि वह एकमात्र ईश्वर है।
38 यह उचित ही था कि सर्वशक्तिमान् का क्रोध हमारी जाति पर भड़क उठे। वह क्रोध मेरे और मेरे भाइयों के कारण अब शान्त हो जाये”
39 राजा को इस तिरस्कार का बहुत तीखा अनुभव हुआ और उसने क्रोध के आवेश में आ कर उसके साथ दूसरों से कहीं अधिक क्रूर व्यवहार करने को कहा।
40 इस प्रकार वह निर्दोष युवक केवल प्रभु पर भरोसा रखते हुए इस संसार से चल बसा।
41 अन्त में माता का अपने पुत्रों के बाद देहान्त हो गया।
42 बलि-प्रसाद के सेवन और असाधारण यातानाओं का यह विवरण यहाँ समाप्त किया जाता है।