बीसवाँ सामान्य सप्ताह
आज के संत: संत पियुस दशम्


📒पहला पाठ- न्याय 11: 29-39

29 ll उस समय प्रभु के आत्मा ने यिफ़्तह को प्रेरित किया। यिफ़्तह गिलआद और मनस्से को पार कर गिलआद के मिस्पा नामक स्थान पहुँचा और वहाँ से अम्मोनियों के यहाँ आया।

30 ll यिफ़्तह ने यह कहते हुए प्रभु के सामने यह मन्नत मानी, “यदि तू अम्मोनियों को मेरे हवाले कर देगा और मैं सकुशल लौटँूगा,

31 ll तो जो पहला व्यक्ति मेरी अगवानी करने मेरे घर से निकलेगा, वह प्रभु का होगा और मैं उसकी होम-बलि चढ़ाऊँगा।”

32 ll यिफ़्तह अम्मोनियों के विरुद्ध युद्ध करने निकला और प्रभु ने उन को उसके हवाले कर दिया।

33 ll यिफ़्तह ने अरोएर से मिन्नीत के आसपास तक बीस नगरों को जीता और आबेल-करामीम तक अम्मोनियों को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस प्रकार अम्मोनी लोग इस्राएलियों के अधीन हो गये।

34 ll जब यिफ़्तह मिस्पा में अपने यहाँ लौटा, तो उसकी पुत्री द्वार से निकल कर डफली बजाते और नाचते हुए उसकी अगवानी करने आयी। वह उसकी अकेली सन्तान थी। उसके सिवा यिफ़्तह के न तो कोई पुत्र था और न कोई पुत्री।

35 ll यिफ़्तह ने उसे देखते ही अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, “हाय! बेटी! तुमने मुझे मारा है! तुमने मुझे महान संकट में डाल दिया है। मैं प्रभु को वचन दे चुका हूँ। मैं उसे वापस नहीं ले सकता।”

36 ll उसने उत्तर दिया, “पिता जी! आप प्रभु को वचन दे चुके हैं। आप मेरे विषय में अपनी मन्नत पूरी कीजिए, क्योंकि प्रभु ने आप को अपने शत्रुओं से, अम्मोनियों से, बदला चुकाने का वरदान दिया है।”

37 ll इसके बाद उसने अपने पिता से कहा, “एक निवेदन है। मुझे दो महीने का समय दीजिए, जिससे मैं पहाड़ पर जा कर अपनी सखियों के साथ अपने कुँवारेपन का षोक मनाऊँ।”

38 ll उसने उत्तर दिया, “जाओ” और उसे दो महीनों के लिए जाने दिया। वह अपनी सखियों के साथ चली गयी और उसने पहाड़ पर अपने कुँवारेपन का षोक मनाया।

39 ll वह दो महीने के बाद अपने पिता के यहाँ लौटी और उसने उसके विषय में अपनी मन्नत पूरी कर दी। उसका कभी किसी पुरुष के साथ संसर्ग नहीं हुआ। इस प्रकार इस्राएल में इस प्रथा का प्रचलन हुआ


📙सुसमाचार – मत्ती 22: 1-14

1 ईसा उन्हें फिर दृष्टान्त सुनाने लगे। उन्होंने कहा,

2 “स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जिसने अपने पुत्र के विवाह में भोज दिया।

3 उसने आमन्त्रित लोगों को बुला लाने के लिए अपने सेवकों को भेजा, लेकिन वे आना नहीं चाहते थे।

4 राजा ने फिर दूसरे सेवकों को यह कहते हुए भेजा, ’अतिथियों से कह दो- देखिए! मैंने अपने भोज की तैयारी कर ली है। मेरे बैल और मोटे-मोटे जानवर मारे जा चुके हैं। सब कुछ तैयार है; विवाह-भोज में पधारिये।’

5 अतिथियों ने इस की परवाह नहीं की। कोई अपने खेत की ओर चला गया, तो कोई अपना व्यापार देखने।

6 दूसरे अतिथियों ने राजा के सेवकों को पकड़ कर उनका अपमान किया और उन्हें मार डाला।

7 राजा को बहुत क्रोध आया। उसने अपनी सेना भेज कर उन हत्यारों का सर्वनाश किया और उनका नगर जला दिया।

8 “तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’विवाह-भोज की तैयारी तो हो चुकी है, किन्तु अतिथि इसके योग्य नहीं ठहरे।

9 इसलिए चैराहों पर जाओ और जितने भी लोग मिल जायें, सब को विवाह-भोज में बुला लाओ।’

10 सेवक सड़कों पर गये और भले-बुरे जो भी मिले, सब को बटोर कर ले आये और विवाह-मण्डप अतिथियों से भर गया।

11 “राजा अतिथियों को देखने आया, तो वहाँ उसकी दृष्टि एक ऐसे मनुष्य पर पड़ी, जो विवाहोत्सव के वस्त्र नहीं पहने था।

12 उसने उस से कहा, ’भई, विवाहोत्सव के वस्त्र पहने बिना तुम यहाँ कैसे आ गये?’ वह मनुष्य चुप रहा।

13 तब राजा ने अपने सेवकों से कहा, ’इसके हाथ-पैर बाँध कर इसे बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’

14 क्योंकि बुलाये हुए तो बहुत हैं, लेकिन चुने हुए थोडे़ हैं।”