पहला पाठ: मक्काबियों का पहला ग्रन्थ 4:36-37,52-59
36) उस समय यूदाह और उसके भाइयों ने यह कहा, ’’हमारे शत्रु हार गये। हम जा कर मंदिर का शुद्धीकरण और प्रतिष्ठान करें।’’
37) समस्त सेना एकत्र हो गयी और सियोन के पर्वत की ओर चल पड़ी।
52) एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के नौंवे महीने-अर्थात् किसलेव-के पच्चीसवें दिन, लोग पौ फटते ही उठे
53) और उन्होंने होम की जो नयी वेदी बनायी थी, उस पर विधिवत् बलि चढ़ायी।
54) जिस समय और जिस दिन गैर-यहूदियों ने वेदी को अपवत्रि कर दिया था, उसी समय और उसी दिन भजन गाते और सितार, वीणा तथा झाँझ बजाते हुए उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान किया।
55) सब लोगों ने दण्डवत् कर आराधना की और ईश्वर को धन्य कहा, जिसने उन्हें सफलता दी थी।
56) वे आनंद के साथ होम, शांति तथा धन्यवाद का यज्ञ चढा कर आठ दिन तक वेदी के प्रतिष्ठान का पर्व मनाते रहें।
57) उन्होंने मंदिर का अग्रभाग सोने की मालाओं तथा ढालों से विभूशित किया, फाटकों तथा याजकों की शालाओं को मरम्मत किया और उनमें दरवाजे लगाये।
58) लोगों में उल्लास था और उन पर लगा हुआ गैर-यहूदियों का कलंक मिट गया।
59) यूदाह ने अपने भाइयों तथा इस्राएल के समस्त समुदाय के साथ यह निर्णय किया कि प्रति वर्ष इसी समय, अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन से ले कर आठ दिन तक वेदी के पुनः प्रतिष्ठान का पर्व उल्लास तथा आन्नद के साथ मनाया जायेगा।
सुसमाचार : सन्त लूकस 19:45-48
45) ईसा मन्दिर में प्रवेश कर बिक्री करने वालों को यह कहते हुए बाहर निकालने लगे,
46) ‘‘लिखा है-मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है’’।
47) वे प्रतिदिन मन्दिर में शिक्षा देते थे। महायाजक, शास्त्री और जनता के नेता उनके सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे,
48) परन्तु उन्हें नहीं सूझ रहा था कि क्या करें; क्योंकि सारी जनता बड़ी रुचि से उनकी शिक्षा सुनती थी।