पच्चीसवाँ सामान्य सप्ताह
आज के संत: संत विन्सेंट दि पौल


📒पहला पाठ- ज़कर्या 2: 5-9, 14-15

5 मैंने आँखें उठा कर एक दिव्य दृश्य देखा। मैंने हाथ में नापने की डोरी लिये हुए एक मनुष्य को देखा

6 और मैंने पूछा, “आप कहाँ जा रहे हैं?” उसने मुझे उत्तर दिया, “मैं येरूसालेम को नापने और यह देखने जा रहा हूँ कि उसकी लम्बाई और चैडाई कितनी होगी”।

7 जो स्वर्गदूत मुझ से बोल रहा था, वह आगे बढ़ा और

8 एक दूसरे स्वर्गदूत के उसके पास आ कर कहा, “उस नवयुवक के पास दौड़ कर कहिएः येरूसालेम में मनुष्यों और पशुओं की इतनी भारी संख्या होगी कि उसके चारों ओर चारदीवारी नहीं बनायी जायेगी।

9 प्रभु यह कहता हैः मैं स्वयं उसके चारों ओर आग की दीवार बन कर रहूँगा और अपनी महिमा के साथ उसके बीच में निवास करूँगा’।”

14 प्रभु कहता है, “सियोन की पुत्री! आनन्द का गीत गा, क्योंकि मैं तेरे यहाँ निवास करने आ रहा हूँ।

15 उस दिन बहुत-से राष्ट्र प्रभु के पास आयेंगे। वे उसकी प्रजा बनेंगे, किन्तु वह तेरे यहाँ निवास करेगा“ और तू जान जायेगी कि विश्वमण्डल के प्रभु ने मुझे तेरे पास भेजा है।


📙सुसमाचार – लूकस 9: 43-45

43 ईश्वर का यह प्रताप देख कर सब-के-सब विस्मय-विमुग्ध हो गये।

सब लोग ईसा के कार्यों को देख कर अचम्भे में पड़ जाते थे; किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से कहा,

44 “तुम लोग मेरे इस कथन को भली भाँति स्मरण रखो-मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा”।

45 परन्तु यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकी। इसका अर्थ उन से छिपा रह गया और वे इसे नहीं समझ पाते थे। इसके विषय में ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।