अट्ठारहवाँ सामान्य रविवार
संत वाल्थेओफ


📒पहला पाठ- उपदेशक 1: 2; 2: 21-23

2 उपदेशक कहता है, “व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।”

21 मनुष्य समझदारी, कौशल और सफलता से काम करने के बाद जो कुछ एकत्र कर लेता है, उसे वह सब ऐसे व्यक्ति के लिए छोड़ देना पड़ता है, जिसने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया है। यह भी व्यर्थ और बड़े दुर्भाग्य की बात है;

22 क्योंकि मनुष्य को कड़ी धूप में कठिन परिश्रम करने के बदले क्या मिलता है ?

23 उसके सभी दिन सचमुच दुःखमय हैं और उसका सारा कार्यकलाप कष्टदायक। रात को उसके मन को शान्ति नहीं मिलती। यह भी व्यर्थ है।


📙दूसरा पाठ- कलोसियों 3: 1-5, 9-11

1 यदि आप लोग मसीह के साथ ही जी उठे हैं- जो ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं- तो ऊपर की चीजें खोजते रहें।

2 आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीजों की चिन्ता किया करें।

3 आप तो मर चुके हैं, आपका जीवन मसीह के साथ ईश्वर में छिपा हुआ है।

4 मसीह ही आपका जीवन हैं। जब मसीह प्रकट होंगे, तब आप भी उनके साथ महिमान्वित हो कर प्रकट हो जायेंगे।

5 इसलिए आप लोग अपने शरीर में इन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, कामुकता, विषयवासना और लोभ का, जो मूर्तिपूजा के सदृश है।

9 कभी एक दूसरे से झूठ नहीं बोलें। आप लोगों ने अपना पुराना स्वभाव और उसके कर्मों को उतार कर

10 एक नया स्वभाव धारण किया है। वह स्वभाव अपने सृष्टिकर्ता का प्रतिरूप बन कर नवीन होता रहता और सत्य के ज्ञान की ओर आगे बढ़ता है, जहाँ पहुँच कर कोई भेद नहीं रहता,

11 जहाँ न यूनानी है या यहूदी, न ख़तना है या ख़तने का अभाव, न बर्बर है, न स्कूती, न दास और न स्वतन्त्र। वहाँ केवल मसीह हैं, जो सब कुछ और सब में हैं।


📘सुसमाचार – लूकस 12: 13-21

13 भीड़ में से किसी ने ईसा से कहा, “गुरूवर! मेरे भाई से कहिए कि वह मेरे लिए पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा कर दें”।

14 उन्होंने उसे उत्तर दिया, “भाई! किसने मुझे तुम्हारा पंच या बँटवारा करने वाला नियुक्त किया?”

15 तब ईसा ने लोगों से कहा, “सावधान रहो और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो, उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती”।

16 फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया, “किसी धनवान् की ज़मीन में बहुत फ़सल हुई थी।

17 वह अपने मन में इस प्रकार विचार करता रहा, ’मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ।

18 तब उसने कहा, ’मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा

19 और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।’

20 परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ’मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह़ोगा?’

21 यही दशा उसकी होती है जो अपने लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।”