इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह
आज के संत: संत फेलिक्स और अदौक्तुस
📒पहला पाठ- 1थेसलनीकियों 4: 9-11
9 भ्रातृप्रेम के विषय में आप लोगों को लिखने की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि आप लोग ईश्वर से ही एक दूसरे को प्यार करना सीख चुके हैं
10 और सारी मकेदूनिया के भाइयों के प्रति इस भ्रातृप्रेम का निर्वाह करते हैं। भाइयो! मेरा अनुरोध है कि आप इस विषय में और भी उन्नति करें।
11 आप इस बात पर गर्व करें कि आप शान्ति में जीवन बिताते हैं और हर एक अपने-अपने काम में लगा रहता है। आप लोग मेरे आदेश के अनुसार अपने हाथों से काम करें।
📙सुसमाचार – मत्ती 25:14-30
14 “स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें अपनी सम्पत्ति सौंप दी।
15 उसने प्रत्येक की योग्यता का ध्यान रख कर एक सेवक को पाँच हज़ार, दूसरे को दो हज़ार और तीसरे को एक हज़ार अशर्फ़ियाँ दीं। इसके बाद वह विदेश चला गया।
16 जिसे पाँच हज़ार अशर्फ़ियाँ मिली थीं, उसने तुरन्त जा कर उनके साथ लेन-देन किया तथा और पाँच हज़ार अशर्फ़ियाँ कमा लीं।
17 इसी तरह जिसे दो हज़ार अशर्फ़ियाँ मिली थीं, उसने और दो हज़ार कमा लीं।
18 लेकिन जिसे एक हज़ार अशर्फ़ियाँ मिली थीं, वह गया और उसने भूमि खोद कर अपने स्वामी का धन छिपा दिया।
19 “बहुत समय बाद उन सेवकों के स्वामी ने लौट कर उन से लेखा लिया।
20 जिसे पाँच हज़ार अशर्फ़ियाँ मिली थीं, उसने और पाँच हज़ार ला कर कहा, ’स्वामी! आपने मुझे पाँच हज़ार अशर्फ़ियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और पाँच हज़ार कमायीं।’
21 उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’
22 इसके बाद वह आया, जिसे दो हजार अशर्फ़ियाँ मिली थीं। उसने कहा, ’स्वामी! आपने मुझे दो हज़ार अशर्फ़ियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और दो हज़ार कमायीं।’
23 उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’
24 अन्त में वह आया, जिसे एक हज़ार अशर्फ़ियाँ मिली थीं। उसने कहा, ’स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं।
25 इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर आपका धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इसे लौटाता हूँ।’
26 स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट और आलसी सेवक! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ,
27 तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।
28 इसलिए ये हज़ार अशर्फ़ियाँ इस से ले लो और जिसके पास दस हज़ार हैं, उसी को दे दो;
29 क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है
30 और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।