मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

अध्याय : 12345678910111213141516पवित्र बाईबल

अध्याय 4

1. गोरगियस पाँच हज़ार पैदल सैनिक और एक हजार चुने हुए घुड़सवार ले कर रात को ही निकल पड़ा,

2. जिससे वह अचानक यहूदियों के पड़ाव पर आक्रमण कर बैठे और उनका विनाश करे। गढ़ में रहने वाले व्यक्ति उनके पथप्रदर्शक बने।

3. यूदाह को इसका पता चला और वह अपने वीरों के साथ निकला, जिससे वह अम्माऊस में राजा के शिविर पर उस समय आक्रमण करे,

4. जब उसके सैनिक शिविर के बाहर बिखरे हुए हों।

5. उधर जब गोरगियस रात में यूदाह के पड़ाव में घुसा, तो वहाँ उसे कोई नहीं मिला। वह उन्हें पहाड़ों पर ढूँढ़ने लगा। उसका विचार था कि वे उन्हें देख कर भाग गये हैं।

6. पौ फटते ही यूदाह तीन हजार सैनिकों के साथ मैदान में दिखाई पड़ा, किन्तु उनके पास ऐसे कवच और तलवारें नहीं थीं, जैसे वे चाहते थे।

7. उन्होंने देखा कि विदेशियों का शिविर पक्का और सुरक्षित है और युद्ध के अनुभवी घुड़सवार उसके चारों ओर पहरा दे रहे हैं।

8. यूहाद ने अपने अनुयायियों से कहा, “इनकी बड़ी संख्या देख कर हताश मत हो। इनके आक्रमण से मत डरो।

9. याद करो कि हमारे पूर्वज लाल समुद्र के तट पर तब बच निकले थे, जब फ़िराउन ने अपनी सेना ले कर उनका पीछा किया था।

10. अब हम स्वर्ग के ईश्वर की दुहाई करे, जिससे वह हम पर दया करें, हमारे पूर्वजों के लिए ठहराया हुआ अपना विधान याद करे और आज हमारे सामने उस सेना को रौंद डाले।

11. इस से सब विदेशी जान जायेंगे कि कोई ऐसा है, जो इस्राएल का उद्धारक और रक्षक हैं।”

12. विदेशियों ने जब अपनी आँखें ऊपर उठायीं, तो उन्होंने यहूदियों को आक्रमण करने आते देखा।

13. और वे उनका सामना करने पड़ाव से बाहर आये। यूदाह के आदमियों ने तुरहियाँ बजायीं

14. और वे शत्रु पर टूट पड़े। विदेशी सेना हार गयी और मैदान की ओर भाग खड़ी हुई।

15. जो पिछली पंक्ति में थे, उन्हें तलवार के घाट उतारा गया। अन्य सैनिकों को गज़ेर और इदुमैया के मैदानों, अज़ोत और यमनिया तक भगा दिया गया। उन में लगभग तीन हज़ार आदमी मारे गये।

16. जब यूदाह अपने सैनिकों के साथ उनका पीछा करने के बाद लौटा,

17. तो उसने लोगों से कहा, “लूट का लालच मत करो। हमें और भी लड़ना हैं,

18. क्योंकि गोरगियस और उसकी सेना पहाड़ पर हमारे निकट है। तुम अब हमारे शत्रुओं का डट कर सामना करो और उन्हें पराजित करो। इसके बाद निश्चिंत हो कर लूट जमा करो।”

19. यूदाह बोल ही रहा था कि शत्रुओं का दल पहाड़ पर से उनका निरीक्षण करता हुआ दिखाई पड़ा।

20. उस दल के लोगों ने देखा कि अपने साथी शिविर जलाने के बाद भाग गये हैं। वे शिविर से उठता हुआ धुआ देख समझ गये कि क्या हुआ है।

21. वे यह देख कर बडे़ भयभीत हुए। जब उन्होंने यह भी देखा कि यूदाह की सेना मैदान में लड़ने के लिए तैयार खड़ी है,

22. तो वे सभी फ़िलिस्तियों के देश भाग गये।

23. इसके बाद यूदाह ने पड़ाव लूटना प्रारम्भ किया। उन्हें बहुत सोना और चाँदी, असली रंग के नीले और लाल वस्त्र तथा बहुत सारा माल मिला।

24. वे लौट कर भजन गाते और स्वर्ग के ईश्वर को धन्यवाद देते रहे-“वह भला है; उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है”।

25. उस दिन इस्राएल का अपूर्व ढंग से उद्धार हुआ।

26. विदेशियों में जो बच निकले थे, वे लीसियस के यहाँ गये और उन्होंने उसे यह सारा हाल बताया।

27. वह यह सुन कर घबराया और हताश हो गया; क्योंकि उसने इस्राएल के विषय में जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो सका और राजा ने जो आज्ञा दी थी, वह पूरी नहीं हो सकी।

28. उसने दूसरे वर्ष यहूदियों से लडने के लिए आठ हज़ार चुने हुए पैदल सैनिक और पाँच हज़ार घुड़सवार एकत्रित किये।

29. उन सब ने इदुमैया पहुँच कर बेत-सूर के पास पड़ाव डाला। यूदाह दस हजार आदमियों को ले कर उनका सामना करने आ पहुँचा।

30. वह उस बड़ी सेना को देख कर इस प्रकार प्रार्थना करने लगा, “धन्य हैं तू, इस्राएल के उद्धारक! तूने अपने सेवक दाऊद द्वारा भीमकाय योद्धा का प्रहार विफल कर दिया और साऊल के पुत्र योनातान और उसके शस्त्रवाहक के हाथ में फ़िलिस्तियों की सेना दे दी।

31. अब इन सेना को भी अपनी प्रजा इस्राएल के हाथ में दे, जिससे वे अपनी सेना और अपने घुड़सवारों पर लज्जित हो जायें।

32. उन्हें भयभीत कर, उनका अहंकार चूर-चूर कर दे। उन्हें इस तरह पराजित कर कि वे हताश हो जायें।

33. उन्हें अपने भक्तों की तलवार के शिकार होने दे, जिससे वे सब, जो तुझे जानते हैं, भजन गा कर तेरी स्तुति कर सकें।”

34. इसके बाद वे एक दूसरे से जूझ पडे। लीसियस की सेना के लगभग पाँच हज़ार आदमी युद्ध में मारे गये।

35. जब लीसियस ने अपनी सेना की हार और यूदाह की सेना की निर्भकता देखी और यह भी देखा कि यहूदी जीवन या मरण का विचार किये बिना साहसपूर्वक लड़ रहे हैं, तो वह अन्ताकिया लौट गया। वहाँ वह यहूदिया पर फिर आक्रमण करने विदेशियों की और बड़ी सेना एकत्र करने लगा।

36. उस समय यूदाह और उसके भाइयों ने यह कहा, “हमारे शत्रु हार गये। हम जा कर मन्दिर का शुद्धीकरण और प्रतिष्ठान करें।”

37. समस्त सेना एकत्र हो गयी और सियोन के पर्वत की ओर चल पड़ी।

38. वहाँ उन्होंने देखा कि मन्दिर उजाड़ हैं, वेदी अपवित्र की गयी हैं और फाटक जला दिये गये हैं। आँगनों में जंगल या पहाड की तरह झाड़-झंखाड़ उग आये हैं और उपशालाएँ भी ध्वस्त पड़ी हैं।

39. यह देख उन्होंने अपने वस्त्र फाड़े, सिर पर राख डाली और भारी विलाप किया।

40. वे मुँह के बल गिर पड़े और तुरहियों के बजाये जाने पर उन्होंने ईश्वर की दुहाई दी।

41. उसी समय यूदाह ने सैनिकों को आदेश दिया कि जब तक मन्दिर का शुद्धिकरण पूरा नहीं होता, तब तक वे गढ़ में रहने वाले लोगों से लड़ते रहें।

42. उसने ऐसे याजक चुने, जो अनिन्द्य थे और संहिता के उत्साही समर्थक थे।

43. तब उन्होंने मन्दिर को शुद्ध किया और दूषित पत्थरों को ले जा कर अशुद्ध स्थान पर फेंक दिया।

44. इसके बाद उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया कि अपवित्र की गयी होम-बलि की वेदी का क्या किया जाये।

45. उनके मन में यह अच्छा विचार आया कि वे उसे गिरा दें, जिससे वह उनके कलंक का कारण न बने; क्योंकि विदेशियों ने उसे अपवित्र कर दिया था।

46. उन्होंने वह वेदी गिरा दी और उसके पत्थर मन्दिर की पहाड़ी पर तब तक के लिए किसी सुयोग्य स्थान पर रख दिये, जब तक कोई नबी आ कर उनके विषय में उन्हें नहीं बताता।

47. इसके बाद उन्होंने अनगढ़े पत्थरों से, जैसा कि संहिता में निर्धारित है, पहली वेदी के नमूने पर नयी वेदी बनायी।

48. उन्होंने मंदिर और मन्दिर का भीतरी भाग बनाया और आँगनों को शुद्ध किया।

49. फिर उन्होंने नयी पवित्र सामग्रियाँ बनवा कर दीपवृक्ष, धूप की वेदी और मेज़ मन्दिर में रख दी।

50. इसके बाद उन्होंने वेदी पर धूप चढ़ायी और दीपवृक्ष के दीये जलाये, जिससे मन्दिर जगमगा उठा।

51. उन्होंने मेज़ पर रोटियाँ रखीं और परदे लटकाये। इस प्रकार उन्होंने वह सारा काम पूरा किया, जिसे उन्होंने प्रारम्भ किया।

52. एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के नौंवे महीने-अर्थात् किसलेव-के पच्चीसवें दिन, लोग पौ फटते ही उठे

53. और उन्होंने होम की जो नयी वेदी बनायी थी, उस पर विधिवत् बलि चढ़ायी।

54. जिस समय और जिस दिन ग़ैर-यहूदियों ने वेदी को अपवित्र कर दिया था, उसी समय और उसी दिन भजन गाते और सितार, वीणा तथा झाँझ बजाते हुए उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान किया।

55. सब लोगों ने दण्डवत् कर आराधना की और ईश्वर को धन्य कहा, जिसने उन्हें सफलता दी थी।

56. वे आनन्द के साथ होम, शान्ति तथा धन्यवाद का यज्ञ चढ़ा कर आठ दिन तक वेदी के प्रतिष्ठान का पर्व मनाते रहें।

57. उन्होंने मंदिर का अग्रभाग सोने की मालाओं तथा ढालों से विभूषित किया, फाटकों तथा याजकों की शालाओं को मरम्मत किया और उनमें दरवाज़े लगाये।

58. लोगों में उल्लास था और उन पर लगा हुआ ग़ैर-यहूदियों का कलंक मिट गया।

59. यूदाह ने अपने भाइयों तथा इस्राएल के समस्त समुदाय के साथ यह निर्णय किया कि प्रति वर्ष इसी समय, अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन से ले कर आठ दिन तक वेदी के पुनः प्रतिष्ठान का पर्व उल्लास तथा आनन्द के साथ मनाया जायेगा।

60. उसी समय उन्होंने सियोन पहाड़ी के चारों और ऊँची दीवार और सुदृढ़ बुर्ज बनाये, जिससे विदेशी उसका विनाश नहीं कर सकें, जैसा वे पहले कर चुके थे।

61. यूदाह ने उस में एक रक्षक-सेना रखी। इसके अतिरिक्त उसने बेत-सूर को भी क़िलेबन्द कर दिया, जिससे वह इदुमैया के विरुद्ध जनता का एक सुदृढ़ गढ़ हो।