स्तोत्र ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • 52 • 53 • 54 • 55 • 56 • 57 • 58 • 59 • 60 • 61 • 62 • 63 • 64 • 65 • 66 • 67 • 68 • 69 • 70 • 71 • 72 • 73 • 74 • 75 • 76 • 77 • 78 • 79 • 80 • 81 • 82 • 83 • 84 • 85 • 86 • 87 • 88 • 89 • 90 • 91 • 92 • 93 • 94 • 95 • 96 • 97 • 98 • 99 • 100 • 101 • 102 • 103 • 104 • 105 • 106 • 107 • 108 • 109 • 110 • 111 • 112 • 113 • 114 • 115 • 116 • 117 • 118 • 119 • 120 • 121 • 122 • 123 • 124 • 125 • 126 • 127 • 128 • 129 • 130 • 131 • 132 • 133 • 134 • 135 • 136 • 137 • 138 • 139 • 140 • 141 • 142 • 143 • 144 • 145 • 146 • 147 • 148 • 149 • 150 • पवित्र बाईबल
स्तोत्र 9
2 (1-2) प्रभु! मैं सारे हृदय से तुझे धन्यवाद दूँगा। मैं तेरे सब अपूर्व कार्यों का बखान करूँगा।
3 मैं उल्लसित हो कर आनन्द मनाता हूँ। सर्वोच्च ईश्वर! मैं तेरे नाम के आदर में भजन गाता हूँ।
4 मेरे शत्रुओं को हट जाना पड़ा। वे तेरे सामने ठोकर खा कर नष्ट हो जाते हैं।
5 निष्पक्ष न्यायकर्ता! तूने अपने सिंहासन पर बैठ कर मुझे न्याय दिलाया और मेरे पक्ष में निर्णय दिया।
6 तूने राष्ट्रों को डाँटा, दुष्टों का विनाश किया और उनका नाम सदा के लिए मिटा दिया है।
7 शत्रु असंख्य खँडहरों-जैसे हो गये, तूने उनके नगरों को उजाड़ा; उनकी स्मृति तक मिट गयी।
8 प्रभु का राज्य सदा बना रहता है, उसने न्याय करने के लिए अपना सिंहासन स्थापित किया है।
9 वह न्यायपूर्वक संसार का शासन और निष्पक्षता से राष्ट्रों का न्याय करता है।
10 प्रभु पददलितों का आश्रय है, संकट के समय शरणस्थान।
11 प्रभु! जो तेरा नाम जानते हैं, वे तुझ पर भरोसा रखें; क्योंकि तू उन लोगों का परित्याग नहीं करता, जो तेरी खोज में लगे रहते हैं।
12 सियोन में निवास करने वाले प्रभु की स्तुति करो, राष्ट्रों में उसके अपूर्व कार्यों का बखान करो।
13 वह रक्तपात का लेखा रखता है और दरिद्र की पुकार नहीं भुलाता।
14 प्रभु! दया कर! यह देख कि मेरे शत्रुओं ने मुझे कितना नीचा दिखाया है। तू मुझे मृत्यु के द्वार से निकाल ले आता है,
15 जिससे मैं सियोन की पुत्री के फाटकों पर तेरे समस्त गुणों का बखान करूँ और तेरे उद्धार के कारण आनन्द के गीत गाऊँ।
16 राष्ट्र उस चोरगढ़े में गिरे, जिसे उन्होंने खोदा था; जो फन्दा उन्होने लगाया था, उस में उनके पैर फँस गये।
17 प्रभु ने प्रकट हो कर न्याय किया, उसने दुष्ट को उसके अपने जाल में फँसाया।
18 दुष्ट जन अधोलोक लौट जाये और वे सब राष्ट्र भी, जो ईश्वर की उपेक्षा करते हैं।
19 दरिद्र को सदा के लिए नहीं भुलाया जायेगा और दीन-दुःखियों की आशा व्यर्थ नहीं होगी।
20 प्रभु! उठ। मनुष्य की विजय न हो। तेरे सामने राष्ट्रों का न्याय हो।
21 प्रभु! राष्ट्रों को आतंकित कर, जिससे वे समझें कि वे मात्र मनुष्य हैं।