स्तोत्र ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • 52 • 53 • 54 • 55 • 56 • 57 • 58 • 59 • 60 • 61 • 62 • 63 • 64 • 65 • 66 • 67 • 68 • 69 • 70 • 71 • 72 • 73 • 74 • 75 • 76 • 77 • 78 • 79 • 80 • 81 • 82 • 83 • 84 • 85 • 86 • 87 • 88 • 89 • 90 • 91 • 92 • 93 • 94 • 95 • 96 • 97 • 98 • 99 • 100 • 101 • 102 • 103 • 104 • 105 • 106 • 107 • 108 • 109 • 110 • 111 • 112 • 113 • 114 • 115 • 116 • 117 • 118 • 119 • 120 • 121 • 122 • 123 • 124 • 125 • 126 • 127 • 128 • 129 • 130 • 131 • 132 • 133 • 134 • 135 • 136 • 137 • 138 • 139 • 140 • 141 • 142 • 143 • 144 • 145 • 146 • 147 • 148 • 149 • 150 • पवित्र बाईबल
स्तोत्र 10
1 प्रभु! तू क्यों दूर रहता और संकट के समय छिप जाता है?
2 दुष्ट के घमण्ड के कारण दरिद्र दुःखी हैं, वे उसके कपट के शिकार बनते हैं।
3 दुष्ट अपनी सफलता की डींग मारता है, लोभी प्रभु की निन्दा और तिरस्कार करता है।
4 वह अपने घमण्ड में किसी की परवाह नहीं करता और सोचता है, ईश्वर है ही नहीं।
5 उसके सब कार्य फलते-फूलते हैं, वह तेरे निर्णयों की चिन्ता नहीं करता और अपने विरोधियों का तिरस्कार करता है।
6 वह अपने मन में कहता है, “जैसा हूँ, वैसा ही रहूँगा, मेरा कभी अनर्थ नहीं होगा”।
7 उसका मुख निन्दा, कपट और अत्याचार से भरा है। वह बुराई और दुष्टता की बातें करता है।
8 वह गाँवों के पास घात लगा कर बैठता और निर्दोष को छिप कर मारता है, उसकी आँखें असहाय पर लगी रहती है।
9 वह झाड़ी में सिंह की तरह छिप कर घात कर बैठा है; वह दीन-हीन की घात में बैठा है। वह उसे पकड़ कर अपने जाल में फँसाता है।
10 वह झुक कर छिपा रहता और दरिद्रों पर टूट पड़ता है।
11 वह अपने मन में कहता है: “ईश्वर लेखा नहीं रखता; उसका मुख छिपा हुआ है और वह कभी कुछ नहीं देखता”।
12 प्रभु! उठ कर अपना बाहुबल प्रदर्शित कर। ईश्वर! दरिद्र को न भुला।
13 दुष्ट क्यों ईश्वर का तिरस्कार करता है? वह क्यों अपने मन में कहता है कि वह लेखा नहीं लेगा?
14 किन्तु, तू कष्ट और दुःख देखता है। और हस्तक्षेप करने का ध्यान रखता है । दीन-हीन अपने को तुझ पर छोड़ देता है। तू अनाथ की सहायता करता है।
15 दुष्ट और कुकर्मी का बाहुबल तोड़, उसकी दुष्टता का लेखा ले और उसे समाप्त कर।
16 प्रभु सदा के लिए राज्य करता है, राष्ट्र उसके देश से लुप्त हो गये हैं।
17 प्रभु! तूने दरिद्रों का मनोरथ पूरा किया; तू उन्हें ढारस बंधाता और उनकी प्रार्थना सुनता है।
18 तू अनाथ और पददलित को न्याय दिलाता है, जिससे कोई निरा मनुष्य उन पर अत्याचार न करे।