स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय : 1234567891011121314151617181920212223242526272829303132333435363738394041424344454647484950515253 54555657585960616263646566676869707172737475767778798081828384858687888990919293949596979899100101102103104105106107108109 110111112113114115116117118119120121122123124125126127128129130131132133134135136137138139140141142143144145146147148149150पवित्र बाईबल

स्तोत्र 35

1 प्रभु! तू मेरे अभियोक्ताओं पर अभियोग लगा, मेरे आक्रामकों पर आक्रमण कर।

2 ढाल सँभाल और कवच पहन ले; उठ कर मेरी सहायता कर।

3 भाला उठा कर मेरा पीछा करने वालों का मार्ग रोक। मुझे यह आश्वासन दे कि तू मेरा उद्धारक है।

4 जो मेरे प्राणों के ग्राहक हैं, वे निराश और कलंकित हों। जो मेरी दुर्गति चाहते हैं, वे लज्जित हो कर पीछे हटें।

5 जब प्रभु का दूत उन्हें भगा देगा, तो वे पवन द्वारा छितरायी भूसी के सदृश हों;

6 जब प्रभु का दूत उनका पीछा करेगा, तो उनका मार्ग अन्धकारमय और पिच्छल हो।

7 उन्होंने अकारण मेरे लिए जाल बिछाया, अकारण मेरे लिए चोरगढ़ा खोदा है।

8 उनका अचानक सर्वनाश हो। जो जाल उन्होंने बिछाया, वे उस में फँसें। जो चोरगढ़ा उन्होंने खोदा, वे उस में गिरें।

9 तब मैं प्रभु के कारण आनन्द मनाऊँगा; उसकी सहायता के कारण मैं उल्लसित हो उठूँगा।

10 मेरी समस्त हड्डियाँ यह कहेंगी: “प्रभु! तेरे समान कौन है? तू प्रबल अत्याचारी से दरिद्र की और शोषक से दीन-हीन-की रक्षा करता है।”

11 झूठे गवाह मेरे विरुद्ध खड़े हाते हैं; मैं जो बातें नहीं जानता, मुझ से उनके बारे में पूछताछ की जाती है।

12 वे मुझ से भलाई का बदला बुराई से चुकाते हैं। मैं बिलकुल अकेला हूँ।

13 जब वे बीमार थे, तब मैं टाट ओढ़े, उपवास करते हुए तप करता और हृदय से प्रार्थना करता

14 मेरा व्यवहार ऐसा था, मानो आत्मीय या भाई बीमार हो। मैं ऐसा निरुत्साह और उदास था, जैसा कोई माता के लिए शोक मनाता हो!

15 किन्तु जब मैं ठोकर खाकर गिर गया, तब वे प्रसन्न हो कर मेरे पास एकत्र हो गये। जिन को मैं नहीं जानता था, वे भी निरन्तर मेरी निन्दा करते थे।

16 वे मेरे चारों और खड़े हो गये और दाँत पीसते हुए मेरा उपहास करते थे।

17 प्रभु! तू कब तक यह देखता रहेगा? इस विपत्ति से मेरा उद्धार कर, इन सिंहों से मेरे प्राण बचा।

18 मैं भरी सभा में तुझे धन्यवाद दूँगा। मैं विशाल जनसमूह में तेरी स्तुति करूँगा।

19 मेरे मिथ्यावादी शत्रुओं को मुझ पर हँसने न दे; जो अकारण मुझ से बैर करते हैं, वे आँख न मारें।

20 वे कभी शान्ति की बातें नहीं करते; वे देश के शान्तिप्रिय लोगों की झूठी निन्दा करते हैं।

21 वे गला फाड़ कर मेरे विरुद्ध बोलते हैं। वे कहते हैं “अहा! अहा! हमने उसे अपनी आँखों से देखा”।

22 प्रभु! तूने यह सब देखा है। अब मौन न रह। प्रभु! मुझ से दूर न जा।

23 मेरे ईश्वर! मेरे प्रभु! जाग। उठ कर मुझे न्याय दिला।

24 प्रभु! मेरे ईश्वर! अपने न्याय के अनुसार मुझे निर्दोष सिद्ध कर। उन्हें मुझ पर हँसने न दे।

25 वे अपने मन में यह न कहें, “अहा! अहा! हम तो यही चाहते थे”। वे यह न कहने पायें, “हम उसे निगल गये”।

26 जो मेरी दुर्गति के कारण आनन्दित थे, वे सब-के-सब लज्जित और निराश हों। जो मुझे नीचा दिखाने में अपना गौरव समझते थे, वे कलंकित और अपमानित हों।

27 जो मेरे लिए न्याय चाहते थे, वे उल्लसित होंगे और निरन्तर कहेंगे, “प्रभु की जय! उसने अपने सेवक को सुख-शान्ति प्रदान की।”

28 तब मेरी जिह्वा तेरे न्याय का बखान करेगी और दिन भर तेरी स्तुति करेगी।