स्तोत्र ग्रन्थ
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स्तोत्र 48
2 (1-3) प्रभु महान् और परमप्रशंनीय है। हमारे ईश्वर के नगर में उसका पवित्र पर्वत ऊँचा और मनोहर है। वह समस्त पृथ्वी को आनन्द प्रदान करता है। सियोन का पर्वत ईश्वर का निवास और राजाधिराज का नगर है।
4 ईश्वर उसके गढ़ों में निवास करता और उसे सुरक्षित रखता है।
5 देखो! राजागण संगठित हो गये, उन्होंने मिल कर उस पर आक्रमण किया।
6 वे उसे देखते ही घबरा गये, आतंकित हो कर भाग गये।
7 वे वहाँ पहुँचते ही इस तरह भयभीत और पीड़ित हो गये, जिस तरह प्रसव निकट आने पर स्त्री को वेदना होती है।
8 उनकी दशा उन समुद्री जहाजों-जैसी हो गयी, जिन्हें पूर्वी आँधी छिन्न-भिन्न कर देती है।
9 जैसा हमने सुना था, वैसा ही हमने देखा है- विश्वमंडल के प्रभु के नगर में, हमारे ईश्वर के नगर में, ईश्वर उसे सदा के लिए सुरक्षित रखता है।
10 ईश्वर! हम तेरे मन्दिर में तेरे प्रेम का मनन करते हैं।
11 ईश्वर! तेरे नाम की तरह तेरी स्तुति पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाती है। तेरे दाहिने हाथ में न्याय भरा है।
12 तेरी न्यायप्रियता के कारण सियोन पर्वत आनन्द मनाता है। यूदा के नगर तेरे निर्णय सुन कर आनन्दित हैं।
13 सियोन की प्रदक्षिणा करो, उसकी मीनारों की गिनती करो,
14 उसकी चारदीवारी को ध्यान से देखो, उसके भवनों पर दृष्टि दौड़ाओ, जिससे तुम आने वाली पीढ़ियों को बता सको
15 कि प्रभु हमारा ईश्वर है। वह अनन्त काल तक हमारा नेतृत्व करेगा।