उपदेशक ग्रन्थ

अध्याय : 123456789101112पवित्र बाईबल

अध्याय 8

1 बुद्धिमान् के सदृश कौन है? सृष्टि का रहस्य कौन जानता है? प्रज्ञा मनुष्य का मुख आलोकित करती और उसकी कठोरता दूर कर देती है।

2 ईश्वर के सामने अपनी शपथ के कारण तुम राजा की आज्ञा का पालन करो। तुम उसके यहाँ से उतावली में नहीं जाओ।

3 तुम किसी बात के लिए राजा से अनुरोध नहीं करो; क्योंकि वह जो चाहता है, वही करेगा।

4 राज का मत निर्णायक है। कौन उस से यह पूछ सकता है कि आप यह क्यों कर रहे हैं?

5 जो उसकी आज्ञा का पालन करता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं होगा। जो बुद्धिमान् है, वह हर काम का उपयुक्त समय और उचित ढंग जानता है;

6 क्योंकि हर काम का उपयुक्त समय और ढंग होता है। मनुष्य के लिए बड़े दुःख की बात है

7 कि वह भविष्य को नहीं जानता। उसे कौन बता सकता है कि क्या होने वाला है?

8 किसी को अपने प्राणों पर अधिकार नहीं, कोई उन्हें नहीं रोक सकता। जिस तरह युद्ध के समय किसी को छुट्टी नहीं मिलती, उसी तरह दुष्टों को अपनी दुष्टता से मुक्ति नहीं।

9 मैंने यह सब देखा, जब मैं संसार के समस्त कार्यकलाप पर विचार करता रहा, जहाँ मनुष्य दूसरों पर अधिकार जताता और उन्हें हानि पहुँचाता है।

10 मैंने दुष्टों का दफ़न देखा। मन्दिर से जाने के बाद लोगों ने नगर में उनका आचरण भुला दिया। यह भी व्यर्थ है।

11 मनुष्य अपने हृदय में इसलिए बुरी योजनाएँ बनाते रहते हैं कि अपराधियों को तुरन्त दण्ड नहीं दिया जाता।

12 दुष्ट सैकड़ों कुकर्म करने के बाद भी बहुत समय तक जीवित रहते हैं। फिर भी मैं यह जानता हूँ: ईश्वर के भक्तों का कल्याण होगा, क्योंकि वे ईश्वर पर श्रद्धा रखते हैं।

13 किन्तु दुष्ट का कल्याण नहीं होगा। वह छाया की तरह लुप्त हो कर बहुत समय तक जीवित नहीं रहेगा, क्योंकि वह प्रभु पर श्रद्धा नहीं रखता।

14 पृथ्वी पर एक और बात व्यर्थ है: कुछ धर्मियों को दुष्टों का दण्ड भुगतना पड़ता है और कुछ दुष्टों को धर्मियों का पुरस्कार मिलता है। मैं कह चुका हूँ कि यह भी व्यर्थ है।

15 इसलिए मेरी सिफ़ारिश यह है: जीवन में आनन्द मनाओ, क्योंकि पृथ्वी पर मनुष्य के लिए सब से अच्छा यह है कि वह खाये-पिये और प्रसन्न रहे। इस संसार में ईश्वर ने उसे जितने दिन दिये, उन में उसके परिश्रम में वह आनन्द उसके साथ रहे।

16 जब मैंने प्रज्ञा प्राप्त करने और पृथ्वी पर मनुष्य का कार्यकलाप समझने का प्रयत्न किया, तो मैंने देखा कि मनुष्य भले ही दिन-रात परिश्रम करता रहे, किन्तु पृथ्वी पर जो कुछ हो रहा है, वह उस में ईश्वर का उद्देश्य समझने में असमर्थ है। वह कितना ही परिश्रम क्यों न करे, किन्तु उसे सफलता नहीं मिलती। यदि ज्ञानी यह समझने का दावा करता है, तो भी वह उसका पता लगाने में असमर्थ है।