प्रज्ञा-ग्रन्थ

अध्याय: 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 पवित्र बाईबल

अध्याय 2

1 विधर्मी कुतर्क करते हुए आपस में यह कहते थे: “हमारा जीवन अल्पकालिक और दुःखमय है। जब मनुष्य मरने को हो, तो कोई उपचार नहीं और हमारी जानकारी में कोई कभी अधोलोक से नहीं लौटा।

2 हमने संयोग से जन्म लिया और बाद में ऐसा होगा, मानो हम कभी थे ही नहीं! हमारी साँस मात्र धुआँ है और हमारे विचार हमारे हृदय की धड़कन की चिनगारी!

3 चिनगारी बुझ जाने पर शरीर राख बनेगा और प्राण शून्य आकाश में लुप्त हो जायेंगे।

4 हमारा नाम समय पाकर भुला दिया जायेगा। हमारे कार्यों को कोई भी याद नहीं करेगा। हमारा जीवन बादल के मार्ग की तरह मिट जायेगा। वह कुहरे की तरह विलीन हो जायेगा, जो सूर्य की किरणों से छितराया और उसकी गरमी से लुप्त हो जाता है।

5 हमारा जीवनकाल छाया की तरह गुज़रता है, हमारा अन्त टाला नहीं जा सकता: उस पर मुहर लग चुकी है और कोई नहीं लौटता।

6 “इसलिए आओ, हम जब तक जवान है, उत्सुकता से वर्तमान की अच्छी चीज़ों का उपभोग करें।

7 हम उत्तम अंगूरी और इत्र का पूरा-पूरा आनन्द उठायें; हम वसन्त के फूल हाथ से न जाने दें।

8 इससे पहले कि गुलाब की कलियाँ मुरझायें , हम उनका मुकुट गूँथ कर पहन लें।

9 कोई भी हमारे आनन्दोत्सव से अलग न रहे; हम सर्वत्र अपने आमोद-प्रमोद की निशानी छोड़े; क्योंकि यही हमारा हिस्सा है, यही हमारा भाग्य है।

10 “हम दरिद्र धर्मात्मा पर अत्याचार करें। हम विधवा को भी नहीं छोड़ें और वृद्ध के पके बालों का आदर नहीं करें।

11 हमारी शक्ति हमारे न्याय का मापदण्ड हो, क्योंकि दुर्बलता किसी काम की नहीं।

12 “हम धर्मात्मा के लिए फन्दा लगायें, क्योंकि वह हमें परेशान करता और हमारे आचरण का विरोध करता है। वह हमें संहिता भंग करने के कारण फटकारता है और हम पर हमारी शिक्षा को त्यागने का अभियोग लगाता है।

13 वह समझता है कि वह ईश्वर को जानता है और अपने को प्रभु का पुत्र कहता है।

14 वह हमारे विचारों के लिए एक जीवित चुनौती है। उसे देखने मात्र से हमें अरूचि होती है।

15 उसका आचरण दूसरों-जैसा नहीं और उसके मार्ग भिन्न हैं।

16 वह हमें खोटा और अपवित्र समझ कर हमारे सम्पर्क से दूर रहता है। वह धर्मियों की अन्तगति को सौभाग्यशाली बताता और शेख़ी मारता है कि ईश्वर उसका पिता है।

17 हम यह देखें कि उसका दावा कहाँ तक सच है; हम यह पता लगायें कि अन्त में उसका क्या होगा।

18 यदि वह धर्मात्मा ईश्वर का पुत्र है, तो ईश्वर उसकी सहायता करेगा और उसे उसके विरोधियों के हाथ से छुड़ायेगा।

19 हम अपमान और अत्याचार से उसकी परीक्षा लें, जिससे हम उसकी विनम्रता जानें और उसका धैर्य परख सकें।

20 हम उसे घिनौनी मृत्यु का दण्ड दिलायें, क्योंकि उसका दावा है, कि ईश्वर उसकी रक्षा करेगा।”

21 वे ऐसा सोचते थे, किन्तु यह उनकी भूल थी। उनकी दुष्टता ने उन्हें अन्धा बना दिया था।

22 वे ईश्वर के रहस्य नहीं जानते थे। वे न तो धार्मिकता के प्रतिफल में विश्वास करते थे और न धर्मात्माओें के पुरस्कार में।

23 ईश्वर ने मनुष्य को अमर बनाया; उसने उसे अपना ही प्रतिरूप बनाया।

24 शैतान की ईर्ष्या के कारण ही मृत्यु संसार में आयी है। जो लोग शैतान का साथ देते हैं, वे अवश्य ही मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।