प्रज्ञा-ग्रन्थ

अध्याय: 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 पवित्र बाईबल

अध्याय 13

1 वे मनुष्य कितने मूर्ख है, जिन में ईश्वर का ज्ञान नहीं है! जो दृश्य जगत् को देख कर ‘सत्‘ नामक ईश्वर को नहीं जान सके, जो सृष्टि को देख कर सृष्टिकर्ता को पहचानने में असमर्थ रहे!

2 किन्तु उन्होंने अग्नि, पवन, सूक्ष्म वायु, तारामण्डल, जल का तीव्र प्रवाह अथवा आकाश के ज्योति-पिण्डों को संसार का संचालन करने वाले देवता समझा है।

3 यदि उन्होंने इन वस्तुओं के सौन्दर्य से मोहित हो कर इन्हें देवता समझ लिया है, तो वे यह जान जायें कि इन सब का स्वामी इन से कितना श्रेष्ठ है; क्योंकि समस्त सौन्दर्य के मूलस्त्रोत द्वारा उनकी सृष्टि हुई है

4 और यदि वे इन वस्तुओं की शक्ति और क्रियाशीलता से प्रभावित हुए, तो वे इन वस्तुओं से अनुमान लगायें कि इनका निर्माता कितना अधिक शक्तिशाली है;

5 क्योंकि सृष्ट वस्तुओं की महानता और सौन्दर्य के आधार पर इनके निर्माता का अनुमान लगाया जा सकता है।

6 किन्तु उन लोगों का दोष बड़ा नहीं है; क्योंकि वे ईश्वर को ढूँढ़ते और उसे पाने के इच्छुक थे, किन्तु वे भटक गये।

7 वे ईश्वर के कार्यों के बीच जीवन बिता कर उनकी छानबीन करते और दृश्य वस्तुओं के सौन्दर्य के कारण भ्रम में फँस जाते हैं।

8 फिर भी वे लोग क्षम्य नहीं हैं;

9 क्योंकि यदि वे ज्ञान में इतना आगे बढ़ गये थे कि विश्व के विषय में चिन्तन कर सके, तो वे शीघ्र ही इसके स्वामी को क्यों नहीं पहचान सके?

10 अभागे हैं वे लोग, जिनकी आशा निर्जीव वस्तुओं पर आधारित है! जिन्होंने मनुष्य के हाथों की कृतियों को देवता माना है: पशुओं की मूर्तियों को, सोने और चाँदी की कलाकृतियों को या प्राचीन काल के गढ़े हुए रद्दी पत्थर को।

11 कोई बढ़ई उपयुक्त पेड़ चुन कर उसे गिराता, चतुराई से उसकी छाल उतारता और कौशल से उसे गढ़ कर कोई घरेलू सामान बनाता है।

12 वह लकड़ी की काट-छाट से भोजन पकाता और खा कर तृप्त हो जाता है।

13 जो रद्दी बच गयी, वह उस में से एक टेढ़ी गाँठदार लकड़ी उठाता और फुरसत के समय चतुराई से उसे काट-काट कर कोई रूप देता है। वह उस से मनुष्य की मूर्ति बनाता

14 या किसी तुच्छ पशु की प्रतिमा। वह उस पर गेरू लगता, लाल रंग पोतता और उसका हर दोष छिपाता है।

15 वह उसके लिए एक उपयुक्त निवास बनाता, उसे दीवार पर लगाता और कील से ठोंक देता है।

16 वह सावधानी से उसे गिरने से बचाता है; क्योंकि वह जानता है, कि वह अपने को सँभाल नहीं पाती; वह मात्र मूर्ति है और उसे सहारे की आवश्यकता होती है।

17 यदि वह सम्पत्ति, विवाह या सन्तान के लिए प्रार्थना करता है, तो उसे एक निर्जीव वस्तु को सम्बोधित करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता। जो शक्तिहीन है, वह उस से स्वास्थ्य माँगता है;

18 जो मृत है, वह उस से जीवन माँगता है; जो निस्सहाय है, वह उस से सहायता चाहता है; जो चल नहीं सकता, वह उस से शुभ यात्रा चाहता है।

19 वह अपनी जीविका, अपने परिश्रम और अपने हाथों की सफलता के लिए एक ऐसी वस्तु से सहायता माँगता है, जिसके हाथ नितान्त शक्तिहीन है।