प्रज्ञा-ग्रन्थ

अध्याय: 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 पवित्र बाईबल

अध्याय 17

1 तेरे निर्णय महान् और अनिर्वचनीय हैं; इसलिए तेरी शिक्षा अस्वीकार करने वाले भटक गये।

2 पापी लोग एक पवित्र राष्ट्र को अपने अधीन करना चाहते थे, किन्तु वे अन्धकार के कैदी बने और लम्बी रात्रि की बेड़ियों से बाँधे गये। वे शाश्वत विधाता द्वारा बहिष्कृत हो कर अपने घरों में बन्द थे।

3 वे अपने गुप्त पापों के साथ विस्मृति के काले परदे के पीछे छिप जाना चाहते थे, किन्तु वे भयभीत हो कर तितर-बितर कर दिये गये और मृगमरीचिकाओें से आतंकित किये गये;

4 क्योंकि वे जिस स्थान में छिप गये थे, वह उन्हें भय से मुक्त नहीं करता था। डरावनी आवाज़ें चारों ओर से आती थीं और उन्हें डरावने दृश्य दिखाई पड़ते थे।

5 धधकती आग भी उन्हें प्रकाश देने में असमर्थ थी और नक्षत्रों की चमकती ज्योति को इस भयानक रात को प्रकाशमान करने का साहस नहीं था।

6 उन्हें केवल एक अग्निपुंज दिखाई देता था, जो अपने आप प्रज्वलित हो कर उन्हें भयभीत करता था। जब वह दृश्य उनकी आँखों के सामने ओझल हो जाता था, तो उन पर आतंक छाया रहता और वे उस दृश्य को वास्तविकता से अधिक भयानक समझते थे।

7 इस प्रकार उनके जादू-टोने के तन्त्र-मन्त्र व्यर्थ सिद्ध हुए और उस ज्ञान की कटु भर्त्सना की गयी, जिसका उन्हें गर्व था।

8 जो लोग दावा करते थे कि हम त्रस्त आत्माओें को डर और उलझन से मुक्त करने में समर्थ हैं, वे स्वयं एक हास्यास्पद भय के शिकर बन गये।

9 जब कोई भीषण दृश्य उन्हें नहीं डराता, तो वे अपने पास जन्तुओं के गुज़रने और साँपों की फुफकार से आतंकित हो जाते थे। वे डर के मारे मर रहे थे और उस अन्धकार पर आँख गड़ाना नहीं चाहते थे, जो उन्हें घेरे रहता था।

10 दुष्टता तो स्वाभाव से भीरू है और अपने विरुद्ध साक्ष्य देती है। जब अन्तःकरण उसे दोषी ठहराता है, तो वह विपत्तियों को बढ़ा कर देखती है;

11 क्योंकि भय इसके सिवा और कुछ नहीं कि मनुष्य विवेक द्वारा प्रस्तुत उपायों का परित्याग करता है।

12 मन में सहायता की जितनी कम आशा है, यन्त्रणा के कारण का अज्ञान उतना ही दुःखदायी है।

13 वे सब-के-सब उस असह्य रात्रि में सो गये, जो अशक्त अधोलोक की गहराइयों से निकली थी।

14 वो कभी भयानक दृश्यों से सताये जाते और कभी निराशा से निष्प्राण पड़े रहते थे; क्योंकि एक अप्रत्याशित भय उन को अचानक घेरे रहता था।

15 इस प्रकार प्रत्येक जहाँ गिर पड़ा, वहाँ रोका गया, मानों वह बिना बेड़ियों के क़ैद में बन्द हो:

16 चाहे वह किसान हो या चरवाहा या उजाड़स्थान के बेगार का मज़दूर, वह अचानक पकड़ा गया और अदम्य बलप्रयोग का शिकार बना; क्योंकि सभी एक ही ज़ंजीर अर्थात् अन्धकार से जकड़े हुए थे।

(17-18) हर एक आवाज़ उन्हें भयभीत और निष्प्राण बनाती थीः चाहे वह हवा की सरसराहट हो, या घनी झाड़ियों में चिड़ियों की चहचहाहट, या तेज़ जलधाराओं की घरघराहट, या गिरने वाले पत्थरों की गड़गड़ाहट, या कूदने वाले पशुओें की धपधप या हिंसक जानवरों की दहाड़ या पहाड़ों की गुफा की प्रतिध्वनि; क्योंकि सारी पृथ्वी तेज प्रकाष से आलोकित थी और कार्यकलाप सर्वत्र निर्बाध चल रहा था।

20 केवल उन पर ही एक गहरी रात छायी हुई थी, जो उस अन्धकार की प्रतीक थी, जो उन्हें समेट लेने वाली थी। किन्तु वे अन्धकार से भी अधिक अपने आप के लिए भारस्वरूप थे।