प्रवक्ता ग्रन्थ

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अध्याय 1

1 समस्त प्रज्ञा प्रभु से उत्पन्न होती है, वह सदा उसके पास विद्यमान है।

2 समुद्रतट के बालू-कण, वर्षा की बूॅदें और अनन्त काल के दिन कौन गिन सकता है ? आकाश की ऊॅचाई, पृथ्वी का विस्तार और महागत्र्त की गहराई कौन नाप सकता है ?

3 किसने ईश्वर की प्रज्ञा का अनुसन्धान किया, जो सब से पहले विद्यमान थी?

4 सबसे पहले प्रज्ञा की सृष्टि हुई थी। विवेकपूर्ण बुद्धि अनादिकाल से बनी हुई है।

5 प्रज्ञा का स्त्रोत है- स्वर्ग में ईश्वर का शब्द। प्रज्ञा के मार्ग हैं- शाश्वत आदेश।

6 प्रज्ञा की जड़ तक कौन पहुँचा है? उसकी बारीकियाँ कौन समझता है?

7 प्रज्ञा की शिक्षा किस को मिली है? उसके विविध मार्ग कौन जानता है?

8 परमश्रद्धेय प्रभु ही प्रज्ञासम्पन्न है, वह अपने सिंहासन पर विराजमान है।

9 प्रभु ने ही प्रज्ञा की सृष्टि की है। उसने उसका अवलोकन एवं मूल्यांकन किया

10 और उसे अपने सभी कार्यों में सन्निविष्ट किया है। उसने उसे अपनी उदारता के अनुरूप सब प्राणियों और अपने भक्तों को प्रचुर मात्रा में प्रदान किया है।

11 प्रभु पर श्रद्धा महिमा और गौरव, आनन्द और उल्लास की पराकाष्ठा है।

12 प्रभु पर श्रद्धा हृदय में स्फूर्ति भरती और आनन्द, प्रसन्नता एवं दीर्घ जीवन प्रदान करती हैं।

13 जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, उसका अन्त में भला होगा, वह अपनी मृत्यु के दिन धन्य माना जायेगा।

14 ईश्वर के प्रति प्रेम सम्मान्य प्रज्ञा है।

15 जिन लोगों को यह वरदान मिलता है, वह उन्हें ईश्वर के दर्शन और उन से उसके महान् कार्यो की स्तुति कराता है।

16 प्रज्ञा का मूल स्रोत प्रभु पर श्रद्धा है। वह भक्तों को जन्म से प्राप्त होती है। उसने अपने लिए मनुष्यों के बीच सदा के लिए अपना निवास बनाया और वह उनके वंशजों के प्रति ईमानदार रहेगी।

17 प्रभु पर श्रद्धा ज्ञानसम्मत धार्मिकता है।

18 धार्मिकता हृदय को सुरक्षित रखेगी

19 और उसे प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करेगी।

20 प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा की परिपूर्णता है; वह अपने फलों से मनुष्यों को तृप्त करती है।

21 वह उनके घर बहुमूल्य वस्तुओं से और उनके बखार उपज से भर देती है।

22 प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा का मुकुट है, उसके द्वारा शान्ति और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।

23 दोनो ईश्वर के वरदान हैं।

24 प्रज्ञा वर्षा की तरह ज्ञान और विवेक बरसाती है; जो उस से सम्पन्न हैं, वह उनके यष की वृद्धि करती है।

25 प्रभु पर श्रद्धा प्रज्ञा की जड़ है, उसकी शाखाऍॅ लम्बी आयु है।

26 प्रज्ञा के भण्डार में विवेक और ज्ञानसम्मत धार्मिकता है; उसका तिरस्कार पापियों की समझदारी है।

27 प्रभु पर श्रद्धा पाप हरती और जब तक वह विद्यमान है, (प्रभु का क्रोध दूर करती है।

28 जो अकारण क्रोध करता है, वह दोषी है; क्रोध का आवेग उसके विनाश का कारण बनता है।

29 धैर्यवान् तब तक दुःख सहता है, जब तक उसके हृदय में आनन्द का विकास नहीं होता।

30 वह तब तक अपने विचार प्रकट नहीं करता, जब तक बहुत-से लोग उसके विवेक की चरचा न करें।

31 प्रज्ञा के भण्डार में ज्ञानपूर्ण सूक्तियाँ हैं,

32 किन्तु पापी भक्ति से घृणा करता है।

33 पुत्र! यदि तुम प्रज्ञा चाहते हो, तो आज्ञाओें का पालन करो और प्रभु उसे तुम को प्रदान करेगा।

34 प्रभु की श्रद्धा प्रज्ञा और अनुशासन में निहित है।

35 निष्ठा और विनम्रता प्रभु को प्रिय हैं।

36 प्रभु पर श्रद्धा का विरोध नहीं करो, कपटपूर्ण हृदय से उसके पास नहीं जाओ।

37 मनुष्यों के सामने पाखण्डी मत बनो अपने शब्दों पर नियन्त्रण रखो।

38 घमण्डी मत बनो; नहीं तो तुम्हारा पतन होगा और तुम पर कलंक लगेगा;

39 ईश्वर तुम्हारे गुप्त कार्य प्रकट करेगा और तुम को भरी सभा में नीचा दिखायेगा;

40 क्योंकि तुम में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है और तुम्हारा हृदय कपट से भरा है।