प्रवक्ता ग्रन्थ

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अध्याय 24

1 प्रज्ञा अपनी ही प्रशंसा कर रही है, वह अपने लोगों के बीच अपना ही गुणगान करती है,

2 वह सर्वोच्च की सभा में बोलती है और उसके सामर्थ्य के सामने अपना यश गाती है।

3 वह उसकी प्रजा के बीच गौरवान्वित और सन्तों की सभा में प्रशंसित है।

4 वह चुने हुए लोगों के बीच अपनी स्तुति करती और यह कहते हुए अपने को धन्य कहती है:

5 मैं प्रभु के मुख से निकली, सब से पहले मेरी सृष्टि हुई।

6 मैं अखण्ड ज्योति के रूप में आकाश में प्रकट हुई और मैंने कुहरे की तरह समस्त पृथ्वी को ढक लिया।

7 मैंने ऊँचे आकाश में डेरा डाला। मेरा सिंहासन बादल का खम्भा था।

8 मैंने अकेले ही आकाशमण्डल का चक्कर लगाया और महागर्त्त की गहराई का भ्रमण किया।

9 मुझे समुद्र की लहरों पर, समस्त पृथ्वी पर,

10 सभी प्रजातियों और राष्ट्रों पर अधिकार मिला।

11 मैं उन सब में विश्राम का स्थान ढूँढ़ती रही: मैं किसके यहाँ निवास करूँ?

12 तब विश्व के सृष्टा ने मुझे आदेश दिया, मेरे सृष्टिकर्ता ने मेरे रहने का स्थान निश्चित किया।

13 उसने मुझ से कहा, “याकूब में डेरा डालो, इस्राएल में निवास करो और मेरी प्रजा में जड़ पकड़ो”।

14 उसने आदि में, युगों से पहले मेरी सृष्टि की थी और मैं अन्त काल तक बनी रहूँगी।

15 मैं उसके सामने, पवित्र मन्दिर में सेवा करती रही और इस प्रकार सियोन मेरा निवास बन गया है। मुझे परमप्रिय नगर में विश्राम मिला। येरुसालेम मेरा अधिकारक्षेत्र बन गया है।

16 एक गौरवाशाली राष्ट्र में, प्रभु की भूमि में, उसकी अपनी प्रजा में मेरी जड़ जम गयी है।

17 मैं लेबानोन के देवदार की तरह बढ़ती रही, हेरमोन की पर्वत-श्रेणियों पर सनोवर की तरह।

18 मैं एन-गेदी के खजूर की तरह बढ़ती रही, येरीखो़ं के गुलाब के पौधों की तरह।

19 मैं मैदान में सुन्दर जैतून वृक्ष की तरह, चौकों में चिनार वृक्ष की तरह बढ़ती रही।

20 मैं दारचीनी, गुलमेहँदी और उत्कृष्ट गन्धरस की तरह अपनी सुगन्ध फैलाती रही,

21 गन्धराल, लौंग, अगरू और मन्दिर के लोबान के बादल की तरह।

22 मैंने बलूत वृक्ष की तरह अपनी शाखाएँ फैलायीं, मेरी शाखाएँ सुन्दर और मनोहर हैं।

23 मुझ में दाखलता की तरह सुन्दर बेलें फूट निकलीं, मेरी बौंड़ियों ने मनोहर और रसदार फल उत्पन्न किये।

24 मैं मंगलमय प्रेम, श्रद्धा, ज्ञान और पावन आशा की जननी हूँ।

25 मुझ में सन्मार्ग और सत्य का अनुग्रह, जीवन और सामर्थ्य की सम्पूर्ण आशा विद्यमान है।

26 तुम सब, जो मेरे लिए तरसते हो, मेरे पास आओ और मेरे फल खा कर तृप्त हो जाओ।

27 मेरी स्मृति मधु से भी मधुर है, मैं छत्ते से टपकने वाले मधु से भी वांछनीय हूँ।

28 मेरी स्मृति मनुष्यों में सदा बनी रहेगी।

29 जो मुझे खाते हैं, उन्हें और खाने की इच्छा होगी; जो मेरा पान करते हैं, वे और पीना चाहेंगे।

30 जो मेरी आज्ञा का पालन करते, उन्हें लज्जित नहीं होना पड़ेगा और जो मेरे निर्देशानुसार चलते, वे नहीं भटकेंगे।

31 जो मुझे आलोकित करते, उन्हें अनन्त जीवन प्राप्त होगा।

32 यह सब सर्वोच्च ईश्वर के विधान के ग्रन्थ में लिपिबद्ध है,

33 उस संहिता में, जिसे मूसा ने याकूब की विरासत के रूप में हमें प्रदान किया है।

34 उसने अपने सेवक दाऊद को राजा बना दिया और उसे सदा के लिए सम्मान के सिंहासन पर बिठाया।

35 संहिता पीशोन नदी की तरह प्रज्ञा से परिपूर्ण है, नये फलोंं के समय दज़ला नदी की तरह।

36 वह फ़रात नदी की तरह मन को आप्लावित करती, फ़सल के समय यर्दन नदी की तरह।

37 वह नील नदी की तरह शिक्षा की बाढ़ बहाती है, दाख की फ़सल के समय गीहोन नदी की तरह।

38 प्रथम मनुष्य उसका सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका और अन्तिम मनुष्य उसकी थाह नहीं ले सकेगा;

39 क्योंकि उसका भाव-भण्डार समुद्र से विस्तृत और उसके अभिप्राय महागर्त्त से गम्भीर हैं।

40 मैं तो नदी से निकली नहर के सदृश् हूँ,

41 वाटिका सींचने वाली नाली के सदृश।

42 मैंने कहा, “मैं अपनी वाटिका सींचूँगी, मैं अपनी क्यारियाँ पानी से भर दूँगी”।

43 और देखो: मेरी नाली नदी के रूप में, मेरी नदी समुद्र के रूप में बदल गयी।

44 मैं अपनी शिक्षा उषा की तरह चमकाऊँगी और उसका प्रकाश दूर-दूर तक प्रसारित करूँगी।

45 मैं समस्त पृथ्वी में फैल जाऊँगी, सब सोने वालों का निरीक्षण करूँगी और सब प्रभु पर भरोसा रखने वालों को आलोकित करूँगी।

46 मैं भविष्यवाणी की तरह अपनी शिक्षा प्रसारित करूँगी, उसे आने वाली पीढ़ियों को प्रदान करूँगी और उनके वंशजों में सदा बनी रहूँगी।

47 तुम देखते हो कि मैंने न केवल अपने लिए परिश्रम किया, बल्कि उन सब के लिए, जो प्रज्ञा की खोज में लगे रहते हैं।