प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 29
1 जो अपने पड़ोसी को उधार देता वह दयालु है। जो उसकी सहायता करता, वह आज्ञाओें का पालन करता है।
2 पड़ोसी को जरूरत हो, तो उसे उधार दो। और समय पर अपने पड़ोसी के ऋण चुका दो।
3 अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो और पड़ोसी के प्रति ईमानदार रहो। इस प्रकार तुम को हर ज़रूरत में सहायता मिलेगी।
4 अनेक लोग उधार को संयोग से मिला ख़ज़ाना समझते हैं और जिन्होंने उनकी सहायता की है, उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं।
5 ऐसे लोग उधार पाने से पहले देने वाले का हाथ चूमते और रुपये के कारण विनय से बात करते हैं,
6 किन्तु लौटाने का समय आने पर विलम्ब करते, बहाना बनाते और असमर्थता प्रकट करते हैं।
7 यदि वे लौटाते हैं, तो उधार देने वाला मुश्किल से आधा पायेगा और समझेगा कि मुझे संयोग से ख़ज़ाना मिला है।
8 यदि वे नहीं लौटाते, तो देने वाला अपना पैसा खो देता और अकारण उन्हें शत्रु बना लेता है।
9 वे उसकी निन्दा तथा भत्र्सना करेंगे और सम्मान के बदले उसका अपमान करेंगे।
10 कुछ लोग उधार नहीं देते, वे दुष्ट नहीं हैं; किन्तु व्यर्थ धोखा खाने से डरते हैं।
11 फिर भी तुम दरिद्र के प्रति उदार बनो और उसे देर तक अपने दान की प्रतीक्षा मत करने दो।
12 आज्ञा का पालन करने के लिए दरिद्र की सहायता करो और उसे अपनी ज़रूरत में ख़ाली हाथ मत जाने दो।
13 अपने धन का त्याग भाई और मित्र के लिए कर दो और ज़मीन के नीचे उस में ज़ंग न लगने दो।
14 सर्वोच्च प्रभु की आज्ञा के अनुसार अपने धन का उपयोग करो और तुम सोने की अपेक्षा उस से अधिक लाभ उठाओगे।
15 (15-17 अपनी भिक्षा दरिद्र के हृदय में संचित करो और वह हर प्रकार की बुराई से तुम्हारी रक्षा करेगी।
18 वह पक्की ढाल और भारी भाले की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह से तुम्हारे लिए शत्रु से लड़ेगी।
19 भला आदमी पड़ोसी की ज़मानत देता, किन्तु निर्लज्ज व्यक्ति से धोखा खाता है।
20 (20-21 अपने लिए ज़मानत देने वाले का उपकार मत भुलाओ; उसने तुम्हारे लिए अपने को अर्पित किया।
22 जो अपनी ज़मानत देने वाले का धन गँवाता, वह पापी है
23 और जो अपने उद्धारकर्ता का परित्याग करता, वह कृतघ्न है।
24 ज़मानत ने बहुत-से धनियों का विनाश किया और उन्हें समुद्र की लहरों की तरह बहा दिया।
25 उसने शक्तिशालियों को निर्वासित किया और उन्हें पराये राष्ट्रों में भटकाया।
26 पापी प्रभु की आज्ञाओें का उल्लंघन करते हुए लाभ की आशा में ज़मानत देता और मुक़दमा मोल लेता है।
27 अपनी शक्ति के अनुसार अपने पड़ोसी की ज़मानत दो, किन्तु सावधान रहो कि कहीं धोखा न खाओ।
28 जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ जल, भोजन, वस्त्र हैं और उचित एकान्त के लिए अपना घर।
29 पराये घर में दावत की अपेक्षा अपने घर में रूखा-सूखा भोजन अच्छा है।
30 तुम्हारे पास बहुत हो या कम, उस से सन्तुष्ट रहो और तुम को परदेश में डाँट-फटकार नहीं सुननी पडे़गी।
31 एक घर से दूसरे घर में भटकना और परदेशी होने के कारण मुँह नहीं खोल सकना- यह एक दयनीय जीवन है।
32 तुम को दूसरों को खिलाना-पिलाना पड़ता है और वे तुम्हारा आभार नहीं मानेंगे, बल्कि तुम को कटु शब्द सुनने पड़ेंगे:
33 “परदेशी! आओ और मेज़ तैयार करो; यदि तुम्हारे पास कुछ हो, तो हमें खिला दो”।
34 “परदेशी! चले जाओ, अपने से बड़े आदमी को जगह दो। मेरे भाई आ गये है। मुझे मकान की ज़रूरत हैं।”
35 कोमल हृदय व्यक्ति के लिए ये दो बातें दुःखदायी हैं: परदेशी समझा जाना और ऋणदाता का अपमान।