August 11

पहला पाठ : एज़ेकिएल का ग्रन्थ 12:1-12

1) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुई सुनाई दी,

2) “मानवपुत्र! तुम विद्रोही लोगों के बीच रहते हो। देखने के लिए उनके आँखें हैं, किन्तु वे देखते नहीं; सुनने के लिए कान हैं, किन्तु वे सुनते नहीं;

3) क्योंकि वे विद्रोही हैं। मानवपुत्र! प्रवास का सामान बाँध लो और दिन में सब के देखते प्रवास के लिए प्रस्थान करो। तुम जहाँँ रहते हो, उनके देखते ही वहाँ से प्रवास के लिए प्रस्थान करो। हो सकता है कि वे समझ जायें कि वे एक विद्रोही प्रजा हैं।

4) प्रवास का सामान दिन में ही उनके देखते-देखते बाहर रखो और सन्ध्या को उनकी आँखों के सामने प्रवास के लिए प्रस्थान करो।

5) उनके देखते ही दीवार में छेद करो और उस से निकल जाओ।

6) उनके देखते ही सामान कन्धो पर रख कर सन्ध्या के समय प्रस्थान करो। अपना मुँह ढक लो, जिससे तुम भूमि नहीं देख सको; क्योंकि मैं तुम्हें इस्राएली प्रजा के सामने एक चिन्ह के रूप में प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।“

7) मुझे जैसा आदेश मिला था, मैंने वैसा ही किया। मैंने दिन में प्रवास का सामान बाहर रखा और सन्ध्या के समय अपने हाथ से दीवार में छेद किया। मैं झुटपुटे में कन्धे पर सामान रख कर उनके देखते ही चला गया।

8) दूसरे दिन प्रातः मुझे प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

9) “मानवपुत्र! क्या इस्राएल की विद्रोही प्रजा ने तुम से यह नहीं पूछा कि तुम क्या करते हो?

10) उन से कहोः प्रभु-ईश्वर यह कहता है। यह येरुसालेम के राजा और वहाँ रहने वाली समस्त इस्राएली प्रजा के विषय में भवियवाणी है।

11) उन से यह कहोः मैं तुम लोगों के लिए एक चिन्ह हूँ। तुमने जैसा किया, उन लोगों के साथ वैसा ही किया जायेगा। वे बन्दी बनकर निर्वासित किये जायेंगे।

12) उन लोगों का राजा सन्ध्या के समय अपना सामान कन्धे पर रख कर नगर से चला जायेगा। लोग दीवार में छेद करेंगे, जिससे वह बाहर जा सके। वह अपना मुँह ढक लेगा, जिससे वह अपनी आँखों से यह भूमि न देखे।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 18:21-19:1

21) तब पेत्रुस ने पास आ कर ईसा से कहा, ’’प्रभु! यदि मेरा भाई मेरे विरुद्ध अपराध करता जाये, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? सात बार तक?’’

22) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मैं तुम से नहीं कहता ’सात बार तक’, बल्कि सत्तर गुना सात बार तक।

23) ’’यही कारण है कि स्वर्ग का राज्य उस राजा के सदृश है, जो अपने सेवकों से लेखा लेना चाहता था।

24) जब वह लेखा लेने लगा, तो उसका लाखों रुपये का एक कर्ज़दार उसके सामने पेश किया गया।

25) अदा करने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं था, इसलिए स्वामी ने आदेश दिया कि उसे, उसकी पत्नी, उसके बच्चों और उसकी सारी जायदाद को बेच दिया जाये और ऋण अदा कर लिया जाये।

26) इस पर वह सेवक उसके पैरों पर गिर कर यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए, और मैं आपको सब चुका दूँगा।

27) उस सेवक के स्वामी को तरस हो आया और उसने उसे जाने दिया और उसका कजऱ् माफ़ कर दिया।

28) जब वह सेवक बाहर निकला, तो वह अपने एक सह- सेवक से मिला, जो उसका लगभग एक सौ दीनार का कर्ज़दार था। उसने उसे पकड़ लिया और उसका गला घांेट कर कहा, ’अपना कर्ज़ चुका दो’।

29) सह-सेवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’मुझे समय दीजिए और मैं आपको चुका दूँगा’।

30) परन्तु उसने नहीं माना और जा कर उसे तब तक के लिये बन्दीगृह में डलवा दिया, जब तक वह अपना कर्ज़ न चुका दे!

31) यह सब देख कर उसके दूसरे सह-सेवक बहुत दुःखी हो गये और उन्होंने स्वामी के पास जा कर सारी बातें बता दीं।

32) तब स्वामी ने उस सेवक को बुला कर कहा, ’दृष्ट सेवक! तुम्हारी अनुनय-विनय पर मैंने तुम्हारा वह सारा कजऱ् माफ़ कर दिया था,

33) तो जिस प्रकार मैंने तुम पर दया की थी, क्या उसी प्रकार तुम्हें भी अपने सह-सेवक पर दया नहीं करनी चाहिए थी?’

34) और स्वामी ने क्रुद्ध होकर उसे तब तक के लिए जल्लादों के हवाले कर दिया, जब तक वह कौड़ी-कौड़ी न चुका दे।

35) यदि तुम में हर एक अपने भाई को पूरे हृदय से क्षमा नहीं करेगा, तो मेरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे साथ ऐसा ही करेगा।’’

1) अपना यह उपदेश समाप्त कर ईसा गलीलिया से चले गये और यर्दन के पार यहूदिया प्रदेश पहुँचे।