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पठन योजना में आज पढ़ें :(संत लूकस 9-10) ,  (सूक्ति-ग्रन्थ 26: 4-6)

(Read in English)

संत लूकस 9

1 ईसा ने बारहों को बुला कर उन्हें सब अपदूतों पर सामर्थ्य तथा अधिकार दिया और रोगों को दूर करने की शक्ति प्रदान की।

2 तब ईसा ने उन्हें ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने भेजा।

3 उन्होंने उन से कहा, “रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ-न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया। अपने लिए दो कुरते भी न रखो।

4 जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो।

5 यदि लोग तुम्हारा स्वागत न करें, तो उनके नगर से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।”

6 वे चले गये और सुसमाचार सुनाते तथा लोगों को चंगा करते हुए गाँव-गाँव घूमते रहे।

7 राजा हेरोद उन सब बातों की चर्चा सुन कर असमंजस में पड़ गया, क्योंकि कुछ लोग कहते थे कि योहन मृतकों में से जी उठा है।

8 कुछ कहते थे कि एलियस प्रकट हुआ है और कुछ लोग कहते थे कि पुराने नबियों में से कोई जी उठा है।

9 हरोद ने कहा, “योहन का तो मैंने सिर कटवा दिया। फिर यह कौन है, जिसके विषय में ऐसी बातें सुनता हूँ?” और वह ईसा को देखने के लिए उत्सुक था।

10 प्रेरितों ने लौट कर ईसा को बताया कि हम लोगों ने क्या-क्या किया है। वे उन्हें अपने साथ ले कर बेथसाइदा नगर की ओर एक निर्जन स्थान गये,

11 किन्तु लोगों को इसका पता चल गया और वे भी उनके पीछे हो लिये। ईसा ने उनका स्वागत किया, ईश्वर के राज्य के विषय में उन को शिक्षा दी और बीमारों को अच्छा किया।

12 अब दिन ढलने लगा था। बारहों ने उनके पास आ कर कहा, “लोगों को विदा कीजिए, जिससे वे आसपास के गाँवों और बस्तियों में जा कर रहने और खाने का प्रबन्ध कर सकें। यहाँ तो हम लोग निर्जन स्थान में हैं।”

13 ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, “तुम लोग ही उन्हें खाना दो”। उन्होंने कहा, “हमारे पास तो केवल पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं। क्या आप चाहते हैं कि हम स्वयं जा कर उन सब के लिए खाना ख़रीदें?”

14 वहाँ लगभग पाँच हज़ार पुरुष थे। ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, “पचास-पचास कर उन्हें बैठा दो”।

15 उन्होंने ऐसा ही किया और सब को बैठा दिया।

16 तब ईसा ने वे पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ ले लीं, स्वर्ग की ओर आँखें उठा कर उन पर आशिष की प्रार्थना पढ़ी और उन्हें तोड़-तोड़ कर वे अपने शिष्यों को देते गये ताकि वे उन्हें लोगों में बाँट दें।

17 सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये, और बचे हुए टुकड़ों से बारह टोकरे भर गये।

18 ईसा किसी दिन एकान्त में प्रार्थना कर रहे थे और उनके शिष्य उनके साथ थे। ईसा ने उन से पूछा, “मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?”

19 उन्होंने उत्तर दिया, “योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहतें-एलियस; और कुछ लोग कहते हैं-प्राचीन नबियों में से कोई पुनर्जीवित हो गया है”।

20 ईसा ने उन से कहा, “और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” पेत्रुस ने उत्तर दिया, “ईश्वर के मसीह”।

21 उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि वे यह बात किसी को भी नहीं बतायें।

22 उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा”।

23 इसके बाद ईसा ने सबों से कहा, “जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और प्रतिदिन अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले;

24 क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देता है, और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।

25 मनुष्य को इस से क्या लाभ, यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे या अपना सर्वनाश कर ले?

26 जो मुझे तथा मेरी शिक्षा को स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, मानव पुत्र भी उसे स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, जब वह अपनी, अपने पिता तथा पवित्र स्वर्गदूतों की महिमा के साथ आयेगा।

27 मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ – यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे ईश्वर का राज्य न देख लें।”

28 इन बातों के करीब आठ दिन बाद ईसा पेत्रुस, योहन और याकूब को अपने साथ ले गये और प्रार्थना करने के लिए एक पहाड़ पर चढ़े।

29 प्रार्थना करते समय ईसा के मुखमण्डल का रूपान्तरण हो गया और उनके वस्त्र उज्जवल हो कर जगमगा उठे।

30 दो पुरुष उनके साथ बातचीत कर रहे थे। वे मूसा और एलियस थे,

31 जो महिमा-सहित प्रकट हो कर येरूसालेम में होने वाली उनकी मृत्यु के विषय में बातें कर रहे थे।

32 पेत्रुस और उसके साथी, जो ऊँघ रहे थे, अब पूरी तरह जाग गये। उन्होंने ईसा की महिमा को और उनके साथ उन दो पुरुषों को देखा।

33 वे विदा हो ही रहे थे कि पेत्रुस ने ईसा से कहा, “गुरूवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़ा कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।” उसे पता नहीं था कि वह क्या कह रहा है।

34 वह बोल ही रहा था कि बादल आ कर उन पर छा गया और वे बादल से घिर जाने के कारण भयभीत हो गये।

35 बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, “यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।”

36 वाणी समाप्त होने पर ईसा अकेले ही रह गये। शिष्य इस सम्बन्ध में चुप रहे और उन्होंने जो देखा था, उस विषय पर वे उन दिनों किसी से कुछ नहीं बोले।

37 दूसरे दिन जब वे पहाड़ से उतरे, तो एक विशाल जनसमूह ईसा से मिलने आया।

38 उस में एक मनुष्य ने पुकार कर कहा, “गुरूवर! आप से मेरी यह प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र पर कृपादृष्टि करें। वह मेरा इकलौता है।

39 उसे अपदूत लग जाया करता है, जिससे वह अचानक चिल्ला उठता और फेन उगलता है, और उसका शरीर ऐंठने लगता है। वह उसकी नस-नस तोड़ कर बड़ी मुश्किल से उस से निकलता है।

40 मैंने आपके शिष्यों से उसे निकालने की प्रार्थना की, परन्तु वे ऐसा नहीं कर सके।”

41 ईसा ने उत्तर दिया, “अविश्वासी और दुष्ट पीढ़ी! मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँ? कब तक तुम्हें सहता रहूँ? अपने पुत्र को यहाँ ले आओ।”

42 लड़का पास आ ही रहा था कि अपदूत ने उसे भूमि पर पटक कर मरोड़ दिया, किन्तु ईसा ने अशुद्ध आत्मा को डाँटा और लड़के को चंगा कर उसके पिता को सौंप दिया।

43 ईश्वर का यह प्रताप देख कर सब-के-सब विस्मय-विमुग्ध हो गये।

सब लोग ईसा के कार्यों को देख कर अचम्भे में पड़ जाते थे; किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से कहा,

44 “तुम लोग मेरे इस कथन को भली भाँति स्मरण रखो-मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा”।

45 परन्तु यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकी। इसका अर्थ उन से छिपा रह गया और वे इसे नहीं समझ पाते थे। इसके विषय में ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।

46 शिष्यों में यह विवाद छिड़ गया कि हम में सब से बड़ा कौन है।

47 ईसा ने उनके विचार जान कर एक बालक को बुलाया और उसे अपने पास खड़ा कर

48 उन से कहा, “जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है; क्योंकि तुम सब में जो छोटा है, वही बड़ा है।”

49 योहन ने कहा, “गुरूवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा है और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारी तरह आपका अनुसरण नहीं करता“।

50 ईसा ने कहा, “उसे मत रोको। जो तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।“

51 अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरूसालेम जाने का निश्चय किया

52 और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया।

53 लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरूसालेम जा रहे थे।

54 उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, “प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे”।

55 पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा

56 और वे दूसरी बस्ती चले गये।

57 ईसा अपने शिष्यों के साथ यात्रा कर रहे थे कि रास्ते में ही किसी ने उन से कहा, “आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा”।

58 ईसा ने उसे उत्तर दिया, “लोमडि़यों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोंसले, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है”।

59 उन्होंने किसी दूसरे से कहा, “मेरे पीछे चले आओ”। परन्तु उसने उत्तर दिया, “प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफ़नाने के लिए जाने दीजिए”।

60 ईसा ने उस से कहा, “मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो। तुम जा कर ईश्वर के राज्य का प्रचार करो।”

61 फिर कोई दूसरा बोला, “प्रभु! मैं आपका अनुसरण करूँगा, परन्तु मुझे अपने घर वालों से विदा लेने दीजिए”।

62 ईसा ने उस से कहा, “हल की मूठ पकड़ने के बाद जो मुड़ कर पीछे देखता है, वह ईश्वर के राज्य के योग्य नहीं”।

संत लूकस 10

1 इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2 उन्होंने उन से कहा, “फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3 जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4 तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5 जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6 यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7 उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8 जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9 वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।

10 परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,

11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’

12 मैं तुम से यह कहता हूँ – न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

13 “धिक्कार तुझे, खोराजि़न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरुस और सीदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चात्ताप किया होता।

14 इसलिए न्याय के दिन तुम्हारी दशा की अपेक्षा तीरुस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

15 और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं, तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा?

16 “जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है और जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है। जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है, जिसने मुझे भेजा है।”

17 बहत्तर शिष्य सानन्द लौटे और बोले, “प्रभु! आपके नाम के कारण अपदूत भी हमारे अधीन होते हैं”।

18 ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, “मैंने शैतान को बिजली की तरह स्वर्ग से गिरते देखा।

19 मैंने तुम्हें साँपों, बिच्छुओं और बैरी की सारी शक्ति को कुचलने का सामर्थ्य दिया है। कुछ भी तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकेगा।

20 लेकिन, इसलिए आनन्दित न हो कि अपदूत तुम्हारे अधीन हैं, बल्कि इसलिए आनन्दित हो कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे हुए हैं।”

21 उसी घड़ी ईसा ने पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर आनन्द के आवेश में कहा, “पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ, क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता, यही तुझे अच्छा लगा

22 मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर यह कोई भी नहीं जानता कि पुत्र कौन है और पुत्र को छोड़ कर यह कोई नहीं जानता कि पिता कौन है। केवल वही जानता है, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करता है।”

23 तब उन्होंने अपने शिष्यों की ओर मुड़ कर एकान्त में उन से कहा, “धन्य हैं वे आँखें, जो वह देखती हैं जिसे तुम देख रहे हो!

24 क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ – तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और राजा देखना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और जो बातें तुम सुन रहे हो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।”

25 किसी दिन एक शास्त्री आया और ईसा की परीक्षा करने के लिए उसने यह पूछा, “गुरूवर! अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?”

26 ईसा ने उस से कहा, “संहिता में क्या लिखा है?” तुम उस में क्या पढ़ते हो?”

27 उसने उत्तर दिया, “अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो”।

28 ईसा ने उस से कहा, “तुमने ठीक उत्तर दिया। यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे।”

29 इस पर उसने अपने प्रश्न की सार्थकता दिखलाने के लिए ईसा से कहा, “लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?”

30 ईसा ने उसे उत्तर दिया, “एक मनुष्य येरूसालेम से येरीख़ो जा रहा था और वह डाकुओं के हाथों पड़ गया। उन्होंने उसे लूट लिया, घायल किया और अधमरा छोड़ कर चले गये।

31 संयोग से एक याजक उसी राह से जा रहा था और उसे देख कर कतरा कर चला गया।

32 इसी प्रकार वहाँ एक लेवी आया और उसे देख कर वह भी कतरा कर चला गया।

33 इसके बाद वहाँ एक समारी यात्री आया और उसे देख कर उस को तरस हो आया।

34 वह उसके पास गया और उसने उसके घावों पर तेल और अंगूरी डाल कर पट्टी बाँधी। तब वह उसे अपनी ही सवारी पर बैठा कर एक सराय ले गया और उसने उसकी सेवा शुश्रूषा की।

35 दूसरे दिन उसने दो दीनार निकाल कर मालिक को दिये और उस से कहा, ’आप इसकी सेवा-शुश्रूषा करें। यदि कुछ और ख़र्च हो जाये, तो मैं लौटते समय आप को चुका दूँगा।’

36 तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?”

37 उसने उत्तर दिया, “वही जिसने उस पर दया की”। ईसा बोले, “जाओ, तुम भी ऐसा करो”।

38 ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।

39 उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।

40 परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, “प्रभु! क्या यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है?  आप उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।”

41 प्रभु ने उसे उत्तर दिया, “मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त;

42 फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।”

सूक्ति-ग्रन्थ 26: 4-6

4 मूर्ख की मूर्खता के अनुसार उत्तर मत दो, नहीं तो तुम उसके सदृश बन जाओगे।

5 मूर्ख की मूर्खता के अनुसार उत्तर दो, जिससे वह अपनी दृष्टि में समझदार न बने।

6 जो मूर्ख द्वारा सन्देश भेजता, वह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारता और अपने पर विपत्ति बुलाता है।