पहला पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 11:29-36

29) क्योंकि ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है।

30) जिस तरह आप लोग पहले ईश्वर की अवज्ञा करते थे और अब, जब कि वे अवज्ञा करते हैं, आप ईश्वर के कृपापात्र बन गये हैं,

31) उसी तरह अब, जब कि आप ईश्वर के कृपापात्र बन गये हैं, वे ईश्वर की अवज्ञा करते हैं, किन्तु बाद में वे भी दया प्राप्त करेंगे।

32) ईश्वर ने सबों को अवज्ञा के पाप में फंसने दिया, क्योंकि वह सबों पर दया दिखाना चाहता था।

33) कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग!

34) प्रभु का मन कौन जान सका? उसका परामर्शदाता कौन हुआ?

35) किसने ईश्वर को कभी कुछ दिया है जो वह बदले में कुछ पाने का दावा कर सके?

36) ईश्वर सब कुछ का मूल कारण, प्रेरणा-स्रोत तथा लक्ष्य है – उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

सुसमाचार : सन्त लूकस 14:12-14

12) फिर ईसा ने अपने निमन्त्रण देने वाले से कहा, ’’जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को, न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को। कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमन्त्रण दे कर बदला चुका दें।

13) पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अन्धों को बुलाओ।

14) तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरूत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।’’