पहला पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 15:14-21

14) भाइयो! मुझे दृढ़ विश्वास है कि आप लोग सद्भाव और हर प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण हो कर एक दूसरे को सत्परामर्श देने योग्य हैं।

15 (15-16) फिर भी कुछ बातों का स्मरण दिलाने के लिए मैंने आप को निस्संकोच हो कर लिखा है; क्योंकि ईश्वर ने मुझे गै़र-यहूदियों के बीच ईसा मसीह का सेवक तथा ईश्वर के सुसमाचार का पुरोहित होने का वरदान दिया है, जिससे ग़ैर-यहूदी, पवित्र आत्मा द्वारा पवित्र किये जाने के बाद, ईश्वर को अर्पित और सुग्राह्य हो जायें।

17) इसलिए मैं ईसा मसीह द्वारा ईश्वर की सेवा पर गौरव कर सकता हूँ।

18) मैं केवल उन बातों की चर्चा करने का साहस करूँगा, जिन्हें मसीह ने गैर-यहूदियों को विश्वास के अधीन करने के लिए मेरे द्वारा वचन और कर्म से,

19) शक्तिशाली चिन्हों और चमत्कारों से और आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न किया है। मैंने येरुसालेम और उसके आसपास के प्रदेश से लेकर इल्लुरिकुम तक मसीह के सुसमाचार का कार्य पूरा किया है।

20) इस में मैंने एक बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा। मैंने कभी वहाँ सुसमाचार का प्रचार नहीं किया, जहाँ मसीह का नाम सुनाया जा चुका था; क्योंकि मैं दूसरों द्वारा डाली हुई नींव पर निर्माण करना नहीं चाहता था,

21) बल्कि धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा करना चाहता था-जिन्हें कभी उसका सन्देश नहीं मिला था, वे उसके दर्शन करेंगे और जिन्होंने कभी उसके विषय में नहीं सुना, वे समझेंगे।

सुसमाचार : सन्त लूकस 16:1-8

1) ईसा ने अपने शिष्यों से यह भी कहा, ’’किसी धनवान् का एक कारिन्दा था। लोगों ने उसके पास जा कर कारिन्दा पर यह दोष लगाया कि वह आपकी सम्पत्ति उड़ा रहा है।

2) इस पर स्वामी ने उसे बुला कर कहा, ‘यह मैं तुम्हारे विषय में क्या सुन रहा हूँ? अपनी कारिन्दगरी का हिसाब दो, क्योंकि तुम अब से कारिन्दा नहीं रह सकते।’

3) तब कारिन्दा ने मन-ही-मन यह कहा, ‘मै क्या करूँ? मेरा स्वामी मुझे कारिन्दगरी से हटा रहा है। मिट्टी खोदने का मुझ में बल नहीं; भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है।

4) हाँ, अब समझ में आया कि मुझे क्या करना चाहिए, जिससे कारिन्दगरी से हटाये जाने के बाद लोग अपने घरों में मेरा स्वागत करें।’

5) उसने अपने मालिक के कर्ज़दारों को एक-एक कर बुला कर पहले से कहा, ’तुम पर मेरे स्वामी का कितना ऋण है?’

6) उसने उत्तर दिया, ‘सौ मन तेल’। कारिन्दा ने कहा, ‘अपना रुक्का लो और बैठ कर जल्दी पचास लिख दो’।

7) फिर उसने दूसरे से पूछा, ‘तुम पर कितना ऋण है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेंहूँ। कारिन्दा ने उस से कहा, ‘अपना रुक्का लो और अस्सी लिख दो’।

8) स्वामी ने बेईमान कारिन्दा को इसलिए सराहा कि उसने चतुराई से काम किया; क्योंकि इस संसार की सन्तान आपसी लेन-देन में ज्योति की सन्तान से अधिक चतुर है।