पहला पाठ: प्रज्ञा-ग्रन्थ 1:1-7
1) पृथ्वी के शासको! न्याय से प्रेम रखो। प्रभु के विषय में ऊँचे विचार रखो और निष्कपट हृदय से उसे खोजते रहो;
2) क्योंकि जो उसकी परीक्षा नहीं लेते, वे उसे प्राप्त करते हैं। प्रभु अपने को उन लोगों पर प्रकट करता है, जो उस पर अविश्वास नहीं करते।
3) कुटिल विचार मनुष्य को ईश्वर से दूर करते हैं। सर्वशक्तिमत्ता उन मूर्खों को पराजित करती है, तो उसकी परीक्षा लेते हैं।
4) प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेश नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है;
5) क्योंकि शिक्षा प्रदान करने वाला पवत्रि आत्मा छल-कपट से घृणा करता है। वह मूर्खतापूर्ण विचारों को तुच्छ समझता और अन्याय से अलग रहता है।
6) प्रज्ञा मनुष्य का हित तो चाहती है, किन्तु वह ईषनिन्दक को उसके शब्दों का दण्ड दिये बिना नहीं छोड़ेगी; क्योंकि ईश्वर मनुष्य के अन्तरतम का साक्षी है। वह उसके हृदय की थाह लेता और उसके मुख के सभी शब्द सुनता है।
7) प्रभु का आत्मा संसार में व्याप्त है। वह सब कुछ को एकता में बाँधे रखता है और मनुष्य जो कुछ कहते हैं, वह सब जानता है।
सुसमाचार : सन्त लूकस 17:1-6
1) ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ‘‘प्रलोभन अनिवार्य है, किन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो प्रलोभन का कारण बनता है!
2) उन नन्हों में एक के लिए भी पाप का कारण बनने की अपेक्षा उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाटा बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।
3) इसलिए सावधान रहो। ‘‘यदि तुम्हारा भाई कोई अपराध करता है, तो उसे डाँटो और यदि वह पश्चात्ताप करता है, तो उसे क्षमा कर दो।
4) यदि वह दिन में सात बार तुम्हारे विरुद्ध अपराध करता और सात बार आ कर कहता है कि मुझे खेद है, तो तुम उसे क्षमा करते जाओ।’’
5) प्रेरितों ने प्रभु से कहा, ‘‘हमारा विश्वास बढ़ाइए’’।
6) प्रभु ने उत्तर दिया, ‘‘यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ‘उखड़ कर समुद्र में लग जा’, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।