चालीसा – काल
चौथा सप्ताह

आज के संत: संत मथिल्डा जर्मनी की रानी

📒 पहला पाठ: निर्गमन 32 : 7 – 14

7 प्रभु ने मूसा से कहा, ”पर्वत से उतरो, क्योंकि तुम्हारी प्रजा, जिसे तुम मिस्र से निकाल लाये हो, भटक गयी है।

8 उन लोगों ने शीघ्र ही मेरा बताया हुआ मार्ग छोड़ दिया। उन्होंने अपने लिए ढली हुई धातु का बछड़ा बना कर उसे दण्डवत किया और बलि चढ़ा कर कहा, ”इस्राएल; यही तुम्हारा देवता है। यही तुम्हें मिस्र से निकाल लाया।”

9 प्रभु ने मूसा से कहा, ”मैं देख रहा हूँ कि ये लोग कितने हठधर्मी हैं।

10 मुझे इनका नाश करने दो। मेरा क्रोध भड़क उठेगा और इनका सर्वनाश करेगा। तब मैं तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।”

11 मूसा ने अपने प्रभु-ईश्वर का क्रोध शान्त करने के उद्देश्य से कहा, ”प्रभु; यह तेरी प्रजा है, जिसे तू सामर्थ्य तथा भुजबल से मिस्र से निकाल लाया। इस पर तू कैसे क्रोध कर सकता है?

12 मिस्रियों को यह कहने का अवसर क्यों मिले कि बुरे उद्देश्य से वह उन्हें निकाल लाया जिससे वह उन्हें पर्वतों के बीच मार डाले और पृथ्वी पर से मिटा दे? अपनी क्रोधाग्नि को शान्त कर और अपनी प्रजा पर विपत्ति न आने दे।

13 अपने सेवकों को, इब्राहीम, इसहाक और याकूब को याद कर। तूने शपथ खा कर उन से यह प्रतिज्ञा की है – मैं तुम्हारी संतति को स्वर्ग के तारों की तरह असंख्य बनाऊँगा और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारे वंशजों को यह समस्त देश प्रदान करूँगा और वे सदा के लिए इसके उत्तराधिकारी हो जायेगे।”

14 तब प्रभु ने अपनी प्रजा को दण्ड देने की जो धमकी दी थी, उसका विचार छोड़ दिया।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 5: 31 – 47

31 “यदि मैं अपने विषय में साक्ष्य देता हूँ, तो मेरा साक्ष्य मान्य नहीं है।

32 कोई दूसरा मेरे विषय में साक्ष्य देता है और मैं जानता हूँ कि वह मेरे विषय में जो साक्ष्य देता है, वह मान्य है।

33 तुम लोगों ने योहन से पुछवाया और उसने सत्य के सम्बन्ध में साक्ष्य दिया।

34 मुझे किसी मनुष्य के साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। मैं यह इसलिए कहता हूँ कि तुम लोग मुक्ति पा सको।

35 योहन एक जलता और चमकता हुआ दीपक था। उसकी ज्योति में थोड़ी देर तक आनन्द मनाना तुम लोगों को अच्छा लगा।

36 परन्तु मुझे जो साक्ष्य प्राप्त है, वह योहन के साक्ष्य से भी महान् है। पिता ने जो कार्य मुझे पूरा करने को सौंपे हैं, जो कार्य मैं करता हूँ, वही मेरे विषय में यह साक्ष्य देते हैं कि मुझे पिता ने भेजा है।

37 पिता ने भी, जिसने मुझे भेजा, मेरे विषय में साक्ष्य दिया है। तुम लोगों ने न तो कभी उसकी वाणी सुनी और न उसका रूप ही देखा।

38 उसकी शिक्षा तुम लोगों के हृदय में घर नहीं कर सकी, क्योंकि तुम उस में विश्वास नहीं करते, जिसे उसने भेजा।

39 तुम लोग यह समझ कर धर्मग्रंथ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है,

40 फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।

41 मैं मनुष्यों की ओर से सम्मान नहीं चाहता।

42 “मैं तुम लोगों के विषय में जानता हूँ कि तुम ईश्वर से प्रेम नहीं करते।

43 मैं अपने पिता के नाम पर आया हूँ, फिर भी तुम लोग मुझे स्वीकार नहीं करतें यदि कोई अपने ही नाम पर आये, तो तुम लोग उस को स्वीकार करोगे।

44 तुम लोग एक दूसरे से सम्मान चाहते हो और वह सम्मान नहीं चाहते, जो एक मात्र ईश्वर की ओर से आता है? तो तुम लोग कैसे विश्वास कर सकते हो?

45 यह न समझो कि मैं पिता के सामने तुम लोगों पर अभियोग लगाऊँगा। तुम पर अभियोग लगाने वाले तो मूसा हैं, जिन पर तुम भरोसा रखते हो।

46 यदि तुम लोग मूसा पर विश्वास करते, तो मुझ पर भी विश्वास करते; क्योंकि उन्होंने मेरे विषय में लिखा है।

47 यदि तुम लोग उनके लेखों पर विश्वास नहीं करते, तो मेरी शिक्षा पर कैसे विश्वास करोगे?”