सामान्य – काल

वर्ष का ग्यारहवाँ रविवार

आज के संत : संत जॉन फ्राँसिस रेजिस पुरोहित

📒 पहला पाठ : एज़ेकिएल 17: 22-24

22 “प्रभु-ईश्वर यह कहता है- मैं देवदार की फुनगी से, उसकी ऊँची-ऊँची शाखाओं से एक टहनी काटूँगा। उसे मैं स्वयं एक ऊँचे पहाड़ पर लगाऊँगा,

23 उसे मैं इस्राएल के ऊँचे पहाड़ पर लगाऊँगा। उस में डालियाँ निकल आयेंगी। वह फल उत्पन्न करेगा और एक शानदार देवदार बन जायेगा। नाना प्रकार के पक्षी उसके नीचे आ जायेंगे; वे उसकी डालियों की छाया में बसेरा करेंगे

24 और मैदान के सभी पेड़ जान लेंगे कि मैं प्रभु, ऊँचे वृक्ष को नीचा बना देता हूँ और नीचे वृक्ष को ऊँचा। मैं हरे वृक्ष को सूखा बना देता हूँ और सूखे वृक्ष को हरा। मैं, प्रभु जो कह चुका हूँ, उसे पूरा कर देता हूँ।“

📘 दूसरा पाठ : 2 कुरिन्थियों 5: 6-10

6 इसलिए हम सदा ईश्वर का भरोसा रखते हैं। हम यह जानते हैं, कि हम जब तक इस शरीर में हैं, तब तक हम प्रभु से दूर, परदेश में निवास करते हैं;

7 क्योंकि हम आँखों-देखी बातों पर नहीं, बल्कि विश्वास पर चलते हैं। हमें तो ईश्वर पर पूरा भरोसा है।

8 हम शरीर का घर छोड़ कर प्रभु के यहाँ बसना अधिक पसन्द करते हैं।

9 इसलिए हम चाहे घर में हों चाहे परदेश में, हमारी एकमात्र अभिलाषा यह है कि हम प्रभु को अच्छे लगे;

10 क्योंकि हम सबों को मसीह के न्यायासन के सामने पेश किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने शरीर में रहते समय जो कुछ किया है, चाहे वह भलाई हो या बुराई, उसे उसका बदला चुकाया जायेगा।

📙 सुसमाचार : संत मारकुस 4:26-34

26 ईसा ने उन से कहा, “ईश्वर का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जो भूमि में बीज बोता है।

27 वह रात को सोने जाता और सुबह उठता है। बीज उगता है और बढ़ता जाता है हालाँकि उसे यह पता नहीं कि यह कैसे हो रहा है।

28 भूमि अपने आप फसल पैदा करती है- पहले अंकुर, फिर बाल और बाद में पूरा दाना।

29 फ़सल तैयार होते ही वह हँसिया चलाने लगता है, क्योंकि कटनी का समय आ गया है।”

30 ईसा ने कहा, “हम ईश्वर के राज्य की तुलना किस से करें? हम किस दृष्टान्त द्वारा उसका निरूपण करें?

31 वह राई के दाने के सदृश है। मिट्टी में बोये जाते समय वह दुनिया भर का सब से छोटा दाना है;

32 परन्तु बाद में बढ़ते-बढ़ते वह सब पौधों से बड़ा हो जाता है और उस में इतनी बड़ी-बड़ी डालियाँ निकल आती हैं कि आकाश के पंछी उसकी छाया में बसेरा कर सकते हैं।

33 वह इस प्रकार के बहुत-से दृष्टान्तों द्वारा लोगों को उनकी समझ के अनुसार सुसमाचार सुनाते थे।

34 वह बिना दृष्टान्त के लोगों से कुछ नहीं कहते थे, लेकिन एकान्त में अपने शिष्यों को सब बातें समझाते थे।