सामान्य काल
पन्द्रहवाँ सप्ताह
आज के संत : रोम के संत अलेक्सिस धर्मवीर
📙पहला पाठ: इसायाह 10: 5-7, 13-16
5 धिक्कार अस्सूर को! वह मेरे क्रोध की छड़ी है, मेरे कोप का डण्ड़ा है।
6 मैं उसे एक विधर्मी देश के विरुद्ध भेजता हूँ। जिस राष्ट्र पर मेरा क्रोध भड़क उठा था, मैं उसे लूटने और उजाड़ने, उसे कूड़े की तरह रौंदने के लिए अस्सूर को भेजता हूँ।
7 किन्तु वह ऐसा नहीं समझता और मनमानी करता है। वह सर्वनाश करना चाहता और असंख्य राष्ट्रों को मिटा देना चाहता है।
13 क्योंकि उसने कहा, ’मैंने अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि और अपनी चतुरता से ऐसा किया है। मैंने राष्ट्रों के सीमान्त मिटाये, उनकी सम्पत्ति लूटी और राजाओं को बलपूर्वक उनके सिंहासनों से गिरा दिया।
14 जिस तरह लोग परित्यक्त नीड़ से अण्डे निकालते हैं, उसी तरह मैंने राष्ट्रों की सम्पत्ति हथिया ली हैं। मैंने सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में किया। किसी ने पंख तक नहीं फड़फड़ाया या चोंच खोलकर चीं-चीं तक नहीं की’।”
15 क्या कुल्हाड़ी अपने चलाने वाले के सामने डींग मारती है? क्या आरा अपने को अराकश से बड़ा मानता है? क्या डण्डा अपने चलाने वाले को चला सकता है या लाठी उसे उठा सकती है, जो लकड़ी नहीं है?
16 इसलिए विश्वमण्डल का प्रभु-ईश्वर अस्सूर के हृष्ट-पुष्ट लोगों में रोग भेजेगा और ज्वर, प्रज्वलित अग्नि की तरह, उनका शरीर गलायेगा।
📕सुसमाचार: संत मत्ती 11: 25-27
25 उस समय ईसा ने कहा, “पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है।
26 हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा।
27 मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।