सामान्य – काल

सातवाँ सप्ताह

आज की संत: संत यूजीन डे मूजेनोड मारसिलेस के धर्माध्यक्ष

📒 पहला पाठ: याकूब 4 : 1 – 10

1 आप लोगों में द्वेष और लड़ाई-झगड़ा क्यों? क्या इसका कारण यह नहीं है कि आपकी वासनाएं आपके अन्दर लड़ाई करती हैं?

2 आप अपनी लालसा पूरी नहीं कर पाते और इसलिए हत्या करते हैं। आप जिस चीज़ के लिए ईर्ष्या करते हैं, उसे नहीं पाते और इसलिए लड़ते-झगड़ते हैं। आप प्रार्थना नहीं करते, इसलिए आप लोगों के पास कुछ नहीं होता।

3 जब आप माँगते भी हैं, तो इसलिए नहीं पाते कि अच्छी तरह प्रार्थना नहीं करते। आप अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए धन की प्रार्थना करते हैं।

4 कपटी और बेईमान लोगो! क्या आप यह नहीं जानते कि संसार से मित्रता रखने का अर्थ है ईश्वर से बैर करना? जो संसार का मित्र होना चाहता है, वह ईश्वर का शत्रु बन जाता है।

5 क्या आप समझते हैं कि धर्मग्रन्थ अकारण कहता है कि ईश्वर ने जिस आत्मा का हम में समावेश किया, वह उस को अपने लिए ही चाहता है?

6 इसलिए वह हमें प्रचुर मात्रा में अनुग्रह देता है, जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- ईश्वर धमण्डि़यों का विरोध करता, किन्तु विनीतों को अनुग्रह प्रदान करता है।

7 आप लोग ईश्वर के अधीन रहें। शैतान का सामना करें और वह आपके पास से भाग जायेगा।

8 ईश्वर के पास जायें और वह आपके पास आयेगा। पापी! अपने हाथ शुद्ध करें। कपटी! आपना हृदय पवित्र करें।

9 अपनी दुर्गति पहचान कर शोक मनायें और आंसू बहायें। आपकी हंसी शोक में और आपका आनन्द विषाद में बदल जाये।

10 प्रभु के सामने दीन-हीन बनें और वह आप को ऊँचा उठायेगा।

📙 सुसमाचार : संत मारकुस 9 : 30 – 37

30 वे वहाँ से चल कर गलीलिया पार कर रहे थे। ईसा नहीं चाहते थे कि किसी को इसका पता चले,

31 क्योंकि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। ईसा ने उन से कहा, “मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे मार डालेंगे और मार डाले जाने के बाद वह तीसरे दिन जी उठेगा।”

32 शिष्य यह बात नहीं समझ पाते थे, किन्तु ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।

33 वे कफ़रनाहूम आये। घर पहुँच कर ईसा ने शिष्यों से पूछा, “तुम लोग रास्ते में किस विषय पर विवाद कर रहे थे?”

34 वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बड़ा कौन है।

35 ईसा बैठ गये और बारहों को बुला कर उन्होंने उन से कहा, “जो पहला होना चाहता है, वह सब से पिछला और सब का सेवक बने”।

36 उन्होंने एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर दिया और उसे गले लगा कर उन से कहा,

37 “जो मेरे नाम पर इन बालकों में किसी एक का भी स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं, बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।”