सामान्य – काल
बारहवाँ सप्ताह
संत योहन बपतिस्ता का जन्मोत्सव वाराणसी धर्मप्रान्त के संरक्षक/महोत्सव
📒पहला पाठ : इसायाह 49: 1-6
1 दूरवर्ती द्वीप मेरी बात सुन¨। दूर के राष्ट्रों! कान लगा कर सुनो। प्रभु ने मुझे जन्म से पहले ही बुलाया, मैं माता के गर्भ में ही था, जब उसने मेरा नाम लिया।
2 उसने मेरी वाणी को अपनी तलवार बना दिया और मुझे अपने हाथ की छाया में छिपा लिया। उसने मुझे एक नुकीला तीर बना दिया और मुझे अपने तरकश में रख लिया
3 उसने मुझे से कहा, “तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा“।
4 मैं कहता था, “मैंने बेकार ही काम किया है, मैंने व्यर्थ ही अपनी शक्ति खर्च की है। प्रभु ही मेरा न्याय करेगा, मेरा पुरस्कार उसी के हाथ में है।“
5 परन्तु जिसने मुझे माता के गर्भ से ही अपना सेवक बना लिया है, जिससे मैं याकूब को उसके पास ले चलूँ और उसके लिए इस्राएल को इकट्ठा कर लूँ, वही प्रभु बोला; उसने मेरा सम्मान किया, मेरा ईश्वर मेरा बल है।
6 उसने कहाः “याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने। मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति-विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।“
📘 दूसरा पाठ : प्रेरित – चरित 13: 22-26
22 इसके बाद ईश्वर ने दाऊद को उनका राजा बनाया और उनके विषय में यह साक्ष्य दिया- मुझे अपने मन के अनुकूल एक मनुष्य, येस्से का पुत्र दाऊद मिल गया है। वह मेरी सभी इच्छाएँ पूरी करेगा।
23 ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हीं दाऊद के वंश में इस्राएल के लिए एक मुक्तिदाता अर्थात् ईसा को उत्पन्न किया हैं।
24 उनके आगमन से पहले अग्रदूत योहन ने इस्राएल की सारी प्रजा को पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश दिया था।
25 अपना जीवन-कार्य पूरा करते समय योहन ने कहा, ’तुम लोग मुझे जो समझते हो, मैं वह नहीं हूँ। किंतु देखो, मेरे बाद वह आने वाले हैं, जिनके चरणों के जूते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ।’
26 “भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।
📙 सुसमाचार : संत लूकस 1: 57-66, 80
57 एलीज़बेथ के प्रसव का समय पूरा हो गया और उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
58 उसके पड़ोसियों और सम्बन्धियों ने सुना कि प्रभु ने उस पर इतनी बड़ी दया की है और उन्होंने उसके साथ आनन्द मनाया।
59 आठवें दिन वे बच्चे का ख़तना करने आये। वे उसका नाम उसके पिता के नाम पर ज़करियस रखना चाहते थे,
60 परन्तु उसकी माँ ने कहा, “जी नहीं, इसका नाम योहन रखा जायेगा”।
61 उन्होंने उस से कहा, “तुम्हारे कुटुम्ब में यह नाम तो किसी का भी नहीं है”।
62 तब उन्होंने उसके पिता से इशारे से पूछा कि वह उसका नाम क्या रखना चाहता है।
63 उसने पाटी मँगा कर लिखा, “इसका नाम योहन है”। सब अचम्भे में पड़ गये।
64 उसी क्षण ज़करियस के मुख और जीभ के बन्धन खुल गये और वह ईश्वर की स्तुति करते हुए बोलने लगा।
65 सभी पड़ोसी विस्मित हो गये और यहूदिया के पहाड़ी प्रदेश में ये सब बातें चारों ओर फैल गयीं।
66 सभी सुनने वालों ने उन पर मन-ही-मन विचार कर कहा, “पता नहीं, यह बालक क्या होगा?” वास्तव में बालक पर प्रभु का अनुग्रह बना रहा।
80 बालक बढ़ता गया और उसकी आत्मिक शक्ति विकसित होती गयी। वह इस्राएल के सामने प्रकट होने के दिन तक निर्जन प्रदेश में रहा।