उपदेशक ग्रन्थ

अध्याय : 123456789101112पवित्र बाईबल

अध्याय 1

1 दाऊद के पुत्र,  येरुसालेम के राजा उपदेशक के वचन

2 उपदेशक कहता है, “व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।”

3 मनुष्य को इस पृथ्वी पर के अपने सारे परिश्रम से क्या लाभ?

4 एक पीढ़ी चली जाती है, दूसरी पीढ़ी आती है और पृथ्वी सदा के लिए बनी रहती है।

5 सूर्य उगता है और सूर्य अस्त हो जाता है। वह शीघ्र ही अपने उस स्थान पर जाता है, जहाँ से वह फिर उगता है।

6 हवा दक्षिण की ओर बहती है, वह उत्तर की ओर मुड़ती है; वह घूम-घूम कर पूरा चक्कर लगाती है।

7 सब नदियाँ समुद्र में गिरती हैं; किन्तु समुद्र नहीं भरता। और नदियाँ जिधर बहती हैं, उधर ही बहती रहती हैं।

8 यह सब इतना नीरस है कि कोई भी इसका पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर पाता। आँखें देखने से कभी तृप्त नहीं होतीं और कान सुनने से कभी नहीं भरते।

9 जो हो चुका है, वह फिर होगा। जो किया जा चुका है, वह फिर किया जायेगा। पृथ्वी भर में कोई भी बात नयी नहीं होती।

10 जिसके विषय में लोग कहते हैं, “देखो, यह तो नयी बात है” वह भी हमारे समय से बहुत पहले हो चुकी है।

11 पहली पीढ़ियों के लोगों की स्मृति मिट गयी है और आने वाली पीढ़ियों की भी स्मृति परवर्ती लोगों मे नहीं बनी रहेगी।

12 मैं, उपदेशक,  येरुसालेम में इस्राएल का शासक था।

13 मैंने आकाश के नीचे जो कुछ घटित होता है, उसकी छानबीन और खोज करने में अपना मन लगाया। यह एक कष्टप्रद कार्य है, जिसे प्रभु ने मनुष्यों को सौंपा है।

14 मैंने आकाश के नीचे का सारा कार्यकलाप देखा है- यह सब व्यर्थ है और हवा पकड़ने के बराबर है।

15 जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं किया जा सकता और जो है ही नहीं, उसकी गिनती नहीं हो सकती।

16 मैंने अपने मन में सेाचा कि अपने पहले के  येरुसालेम के सब शासको से मैंने अधिक प्रज्ञा प्राप्त की है। मुझे प्रज्ञा और ज्ञान का भण्डार मिल चुका है।

17 फिर मैंने यह जानने का प्रयत्न किया कि प्रज्ञा क्या है, पागलपन और मूर्खता क्या है और मैं समझ गया कि यह भी हवा पकड़ने के बराबर है;

18 क्योंकि प्रज्ञा के बढ़ने के साथ-साथ दुःख भी बढ़ता है और जितना अधिक ज्ञान बढ़ता है, उतना अधिक कष्ट भी होता है।