उपदेशक ग्रन्थ

अध्याय : 123456789101112पवित्र बाईबल

अध्याय 5

1 ईश्वर के सामने खड़े हो कर तुम अपने मुँह से जल्दी कोई शब्द नहीं निकालो और अपने हृदय की कोई बात प्रकट करने में उतावली मत करो; क्योंकि ईश्वर स्वर्ग में है और तुम पृथ्वी पर हो। इसलिए तुम्हारे शब्द थोड़े ही हों;

2 क्योंकि अधिक चिन्ता करने से मनुष्य दुःस्वप्न देखता और अधिक बोलने से वह बकवाद करता है।

3 यदि तुम ईश्वर के लिए मन्नत मानते हो, तो उसे शीघ्र पूरा करो। वह मूर्खों पर प्रसन्न नहीं होता। तुमने जो मन्नत मानी, उसे पूरा करो।

4 मन्नत मानने और उसे पूरा नहीं करने से अच्छा यह है कि तुम मन्नत नहीं मानो।

5 इसका ध्यान रखो कि तुम्हारा मुख तुम को दोषी न बनाये और (मन्नत मानने के बाद) तुम याजक से मत कहो कि ग़लती हो गयी है। कहीं ऐसा न हो कि ईश्वर तुम पर अप्रसन्न हो और तुम्हारे परिश्रम का फल नष्ट कर दे।

6 स्वप्नों और निरर्थक बातों की कमी नहीं होती, तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखो।

7 यदि तुम देखते हो कि देश में दरिद्र सताये जाते हैं, न्याय को भ्रष्ट किया जाता और अधिकार छीने जाते हैं, तो इन बातों पर आश्चर्य मत करो; क्योंकि छोटे अधिकारी से ले कर उच्च अधिकारी तक सब-के-सब एक दूसरे का पक्ष लेते हैं।

8 सब को भूमि से लाभ होता है और राजा का कल्याण कृशि पर निर्भर करता है।

9 जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेशा और पैसा चाहता है। जिसे सम्पत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से सन्तुष्ट नहीं हेाता है। यह भी व्यर्थ है।

10 जब सम्पत्ति बढ़ती है, तो उसे खाने वाले भी बढ़ते हैं। सम्पत्ति को देख कर आँखें तृप्त करने के सिवा स्वामी को उस से क्या लाभ?

11 चाहे खाना ज़्यादा मिला हो या कम, मज़दूर की नींद मीठी होती है, किन्तु धनी की परितृप्ति उसे सोने नहीं देती।

12 मैंने पृथ्वी पर एक और दुःख देने वाली बुराई देखी है: छिपा कर रखी हुई सम्पत्ति स्वामी को हानि पहुँचाती है।

13 वह सम्पत्ति किसी विपत्ति में नष्ट हो जाती है और उसकी सन्तान के हाथ ख़ाली हैं।

14 जिस तरह मनुष्य अपनी माता के गर्भ से बाहर आया, उसी तरह वह नंगा ही यहाँ से चला जायेगा। वह अपने परिश्रम के फल का कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता है।

15 यह भी एक दुःख देने वाली बुराई है: वह जिस तरह आया, उसी तरह वह चला जाता है उसे क्या लाभ हुआ? उसने व्यर्थ परिश्रम किया!

16 वह अपना सारा जीवन अन्धकार, निराशा, कष्ट और कटुता में बिताता है।

17 मैं एक बात अच्छी समझता हूँ: यह उचित है कि मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त अल्प जीवनकाल में खाये-पिये और परिश्रम करते हुए सुख-शान्ति का जीवन बिताये; क्योंकि यही उसका भाग्य हैं।

18 यदि ईश्वर किसी मनुष्य को धन-सम्पत्ति प्रदान करता है और उसे उसका उपभोग करने के योग्य बनाता है, तो वह अपना भाग्य स्वीकार करें और परिश्रम करते हुए सुख-शान्ति का जीवन बिताये- यह ईश्वर का वरदान है।

19 यह बिरले ही अपने जीवन के अल्पकाल पर विचार करता है, क्योंकि ईश्वर उसके हृदय को आनन्द से भर देता है।