उपदेशक ग्रन्थ

अध्याय : 123456789101112पवित्र बाईबल

अध्याय 7

1 उत्तम सुगन्धित द्रव्य से सुनाम अच्छा है और जन्मदिन से मृत्यु का दिन अच्छा।

2 दावत के घर जाने की अपेक्षा शोक के घर में प्रवेश करना अच्छा है; क्योंकि मृत्यु हर मनुष्य की गति है। जीवितों को उस पर ध्यान देना चाहिए।

3 हँसी से शोक अच्छा है; क्योंकि उदासमुख वाले का हृदय सुखी हो सकता है।

4 बुध्दिमानों का हृदय शोक के घर को अधिक पसन्द करता है, किन्तु मूर्खों का हृदय उत्सव के घर को।

5 मूर्खों का गाना सुनने की अपेक्षा बुद्धिमान् की डाँट सुनना अच्छा है।

6 मूर्खों की हँसी वैसी ही होती है, जैसी हँड़िया के नीचे लकड़ियों की चर-चराहट। यह भी व्यर्थ है।

7 अत्याचार बुद्धिमान् को मूर्ख बनाता और घूस उसे भ्रष्ट कर देती है।

8 किसी मामले का अन्त उसके प्रारम्भ से अच्छा है और धैर्य अहंकार से अच्छा है।

9 आसानी से उत्तेजित मत हो; क्योंकि मूर्खों के हृदय में क्रोध का निवास है।

10 यह मत पूछो कि पहले के दिन क्यों इन दिनों से अच्छे थे। इस प्रकार का प्रश्न उठाना बुद्धिमानी की बात नहीं।

11 प्रज्ञा विरासत की तरह अच्छी बात है, इस से सूर्य देखने वाले लाभ उठाते हैं।

12 प्रज्ञा और धन, दोनों मनुष्य की रक्षा करते हैं, कि वह ज्ञानी को जीवन प्रदान करता है।

13 ईश्वर के कार्यों पर विचार करो: जिसे ईश्वर ने टेढ़ा कर दिया, उसे कौन सीधा कर सकता है?

14 सुख के दिन आनन्द मनाओे, दुःख के दिन यह सोचो कि ईश्वर ने दोनों को बनाया है। मनुष्य नहीं जानता कि उसके बाद क्या होने वाला है।

15 मैंने अपने व्यर्थ जीवन में इन दोनों को देखा है: धर्मी को, जो अपने न्याय के कारण नष्ट हो गया, और दुष्ट को, जो अपनी दुष्टता के बावजूद बहुत समय तक जीवित रहा।

16 न बहुत अधिक न्यायी बनों और न बहुत अधिक बुद्धिमान्- क्यों अपनी हानि करना चाहते हो?

17 न बहुत अधिक दुष्ट बनो और न मूर्ख बनो – क्यों समय से पहले मरना चाहते हो?

18 अच्छा यह है कि तुम एक को पकड़े रहो और दूसरे को हाथ से जाने न दो। जो ईश्वर पर श्रद्धा रखता है, वह दोनों कर पायेगा।

19 प्रज्ञा बुद्धिमान् मनुष्य को नगर के दस शासकों से अधिक शक्तिशाली बनाती है।

20 संसार में ऐसा कोई धार्मिक मनुष्य नहीं, जो भलाई ही करता और कभी पाप नहीं करता।

21 लोग जो बातें कहते हैं, उन सब पर ध्यान मत दो; नहीं तो तुम अपने नौकर को अपने को कोसते सुनोगे;

22 क्योंकि तुम यह भी जानते हो कि तुमने कितनी बार दूसरों को कोसा है।

23 मैंने प्रज्ञा से इन सब बातों की छानबीन की है और कहा: “मैंने प्रज्ञा प्राप्त करने का निश्चय किया”, किन्तु यह मेरी शक्ति के परे था।

24 जो अस्तित्व में आया, वह हमारी बुद्धि के परे है। वह गहरा है, बहुत गहरा। कौन उसकी थाह ले सकता है?

25 मैंने सारे हृदय से यह जानने का प्रयत्न किया कि प्रज्ञा और बुद्धि क्या है और यह समझा कि दुष्टता नासमझी और मूर्खता पागलपन है।

26 मैं यह समझता हूँ कि कुछ स्त्रियाँ मृत्यु से भी कड़वी हैं; वे फन्दे-जैसी हैं, उनका हृदय जाल-जैसा और उनके हाथ ज़ंजीर-जैसे हैं। जो ईश्वर के प्रिय है, वही उन से बचता है; किन्तु पापी उनके जाल में फँसता है।

27 उपदेशक कहता है- अनुसन्धान करते-करते मैं इतना ही जान पाया।

28 मैं अनुसन्धान करता रहा, किन्तु मैं असफल रहा। मुझे हज़ार में एक पुरुष मिला, किन्तु उन सब में मुझे एक भी स्त्री नहीं मिली।

29 अन्त मे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा: ईश्वर ने मानव जीवन को सरल बनाया, किन्तु मनुष्य ने उसे तर्क-वितर्क से जटिल बना दिया।