प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 10
1 प्रज्ञासम्पन्न शासक अपनी प्रजा को शिक्षा देता है; समझदार व्यक्ति का शासन सुदृढ़ रहता है।
2 जैसा शासक, वैसे ही उसके पदाधिकारी; जैसा नगराध्यक्ष, वैसे ही उसके निवासी।
3 मूर्ख राजा अपनी प्रजा का विनाश करता है। नगरों की सुव्यवस्था उसके शासकों की समझदारी पर निर्भर है।
4 प्ृथ्वी का शासन प्रभु के हाथ में है। वह सुयोग्य व्यक्ति को उपयुक्त समय पर भेजता है।
5 मनुष्य की समृद्धि प्रभु के हाथ में है। वह शास्त्री को महिमा प्रदान करता है।
6 अन्याय के कारण अपने पड़ोसी से बैर मत रखो और घमण्ड के आवेश में कोई काम मत करो।
7 प्रभु और मनुष्यों को घमण्ड से बैर है; अन्याय से दोनों को घृणा है।
8 अन्याय, अत्याचार और लोभ के कारण राजसत्ता एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र के हाथ चली जाती है।
9 कृपण व्यक्ति से अधिक बुरा कोई नहीं। वह अपनी आत्मा को भी बेच सकता है।
10 मिट्टी और राख का पुतला घमण्ड क्यों करता है? जीवित रहते भी उसकी अॅतिड़ियों में कीड़े हैं।
11 दीर्घकालीन बीमारी वैद्य को निराश और अल्पकालीन बीमारी उसे प्रसन्न करती है।
12 हर राज्याधिकार अल्पकालीन है। आज का राजा कल मर जाता है।
13 ज्यों ही मनुष्य मर जाता है, साँप, पशु और कीडे़ उसकी विरासत बनते हैं।
14 मनुष्य का घमण्ड इस से प्रारम्भ होता है कि वह ईश्वर का परित्याग करता
15 और अपने सृष्टिकर्ता से विमुख हो जाता है; क्योंकि हर पाप घमण्ड से प्रारम्भ होता है। जो पाप करता है, वह अभिशप्त है।
16 इसलिए प्रभु ने पापियों पर विपत्तियाँ ढाहीं और उनका सर्वनाश किया है।
17 ईश्वर ने घमण्डियों के सिंहासन गिराये और उन पर दीनों को बैठाया है।
18 प्रभु ने घमण्डी राष्ट्रों की जड़ उखाड़ी और उनके स्थान पर दीनों को रोपा है।
19 प्रभु ने राष्ट्रों की भूमि उजाड़ दी और उनका समूल विनाश किया है।
20 उसने उन्हें मनुष्यों के बीच से उखाड़ दिया और पृथ्वी पर उनकी स्मृति तक मिटा दी है।
21 ईश्वर ने घमण्डियों की स्मृति को मिटा दिया और दीनों की स्मृति को बनाये रखा।
22 घमण्ड मनुष्यों को शोभा नहीं देता और न स्त्री की सन्तान को क्रोध का आवेश।
23 जो प्रजाति प्रभु पर श्रद्धा रखती है, वही सम्मान के योग्य है। जो प्रजाति प्रभु की आज्ञाओें का उल्लंघन करती है, वह सम्मान से वंचित रह जाती है।
24 जो अपने भाइयों का नेता है, उसका उनके बीच सम्मान किया जाता है।
25 परदेशी, शरणार्थी और भिखारी: उनका गौरव इस में है कि वे प्रभु पर श्रद्धा रखते हैं।
26 धार्मिक दरिद्र की उपेक्षा करना अन्याय है और पापी की महिमा करना अनुचित है।
27 राजा, न्यायाधीश और शासक का सम्मान किया जाता है, किन्तु उन में कोई उस व्यक्ति से महान् नहीं, जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है।
28 स्वाधीन व्यक्ति समझदार दास की सेवा करेंगे और इस पर किसी विवेकी को आपत्ति नहीं होगी।
29 अपने व्यवसाय में प्रज्ञा का और तंगहाली में बड़प्पन का स्वाँग मत रचो।
30 उस घमण्डी की अपेक्षा, जिसके पास रोटी नहीं, वह कर्मशील व्यक्ति अच्छा है, जिसे किसी बात की कमी नहीं।
31 पुत्र! विनम्रता से अपनी स्वाभिमान की रक्षा करो, अपने को अपनी योग्यता के अनुसार ही श्रेय दो।
32 जो व्यक्ति अपने साथ अन्याय करता, उसे कौन निर्दोष ठहरायेगा? जो व्यक्ति अपना ही अपमान करता, उस को कौन सम्मान देगा?
33 ज्ञान के कारण दरिद्र का और धन के कारण धनी का सम्मान किया जाता है।
34 दरिद्रता में जिसका सम्मान किया जाता है, उसका समृद्धि में कहीं अधिक सम्मान किया जायेगा। समृद्धि में जिसका अपमान किया जाता है, उसका दरिद्रता में कहीं अधिक अपमान किया जायेगा।