प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 20
1 क्रोध करने की अपेक्षा किसी को समझाना अच्छा है। पाप स्वीकार करने वाले को बोलने देना चाहिए।
2 जो न्याय को भ्रष्ट करना चाहता है,
3 वह उस ख़ोजे के सदृश है, जो किसी कुँवारी का शील भंग करना चाहता है।
4 जो अपना अपराध स्वीकार करता है, उसे कोई हानि नहीं होगी।
5 कोई चुप रहता और बुद्धिमान् समझा जाता है। कोई अधिक बोलता है और लोग उस से बैर करते है।
6 कोई चुप रहता, क्योंकि उसके पास उत्तर नहीं और कोई चुप रहता, क्योंकि वह बोलने का उचित समय जानता है।
7 बुद्धिमान् सुअवसर के समय तक मौन रहेगा, किन्तु बकवादी और मूर्ख सुअवसर का ध्यान नहीं रखते।
8 लोग बकवादी से घृणा करते हैं और जो अधिकार जताता है, लोग उस से बैर करते हैं।
9 कभी तो मनुष्य अपनी विपत्ति से लाभ उठाता है और कभी अप्रत्याशित लाभ उसे हानि पहुँचाता है।
10 किसी उपहार से तुम को कोई लाभ नहीं होगा और किसी उपहार से तुम को दुगुना लाभ होगा।
11 कभी ख्याति से अपमान मिलता और नीचा दिखाये जाने के बाद सिर ऊँचा उठता है।
12 कोई कम दाम में बहुत-सी वस्तुएँ ख़रीदता और कोई सात गुना दाम देता है।
13 बुद्धिमान् थोड़-से शब्दों द्वारा लोकप्रिय बनता, किन्तु मूर्ख व्यर्थ ही बहुत-से प्यार के शब्द बोलता है।
14 मूर्ख के उपहार से तुम को कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि वह अपने उपहार का सात गुना दाम समझता है।
15 वह कम देता, उसकी बड़ी चरचा करता है और मुनादी करने वाले की तरह उसका ढिंढोरा पीटता है।
16 वह आज उधार देता और कल वापस माँगता- ऐसा मनुष्य तिरस्कार के योग्य है।
17 मूर्ख कहता है, “मेरा कोई मित्र नहीं और कोई मेरे उपकारों की चरचा नहीं करता”।
18 जो उसकी रोटी खाते, वे उसकी निन्दा करते हैं। कितने ही लोग कितनी ही बार उसकी हँसी उड़ाते हैं;
19 क्योंकि जो उसके पास है, उसने उसे सद्भाव से नहीं ग्रहण किया और यदि उसके पास नहीं है, तो वह उस बात की परवाह नहीं करता।
20 जीभ के फिसलने की अपेक्षा ज़मीन पर फिसलना अच्छा है। दुष्टों का पतन इस प्रकार जल्दी हो जाता है।
21 बेमौके़ की बात अप्रिय व्यक्ति की तरह होती है, वह मूर्खों के मुँह से निकलती रहती है।
22 सूक्ति मूर्ख के मुँह को शोभा नहीं देती; क्येांकि वह उसे बेमौके बोलता है।
23 कुछ लोग दरिद्रता के कारण पाप नहीं करते ; विश्राम के समय उन्हें पश्चात्ताप नहीं होता।
24 कुछ लोग संकोचवश पाप करते और लोकलज्जा के कारण अपनी आत्मा का विनाश करते हैं।
25 कुछ लोग संकोचवश अपने मित्र से प्रतिज्ञा करते और इस प्रकार उसे व्यर्थ ही शत्रु बना लेते हैं।
26 झूठ मनुष्य का कलंक है; वह मूर्खों के मुँह से निकलता रहता है।
27 बराबर झूठ बोलने वाले की अपेक्षा चोर अच्छा है, किन्तु विनाश दोनों की विरासत है।
28 झूठ बोलने वाले का आचरण अपमानजनक है और उसे निरन्तर लज्जित होना पड़ता है।
29 प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति सहज ही उन्नति करता है। बुद्धिमान् बड़े लोगों का कृपापात्र बनता है।
30 जो खेती करता, वह अपने अनाज का ढेर बढ़ाता है; जो धर्माचरण करता, वह उन्नति करता है, जो बड़े लोगों का कृपापात्र है, उसका अन्याय माफ़ किया जाता है।
31 दान और उपहार ज्ञानियों की भी आँखें अन्धी बना देते और मुँह पर मोहरे की तरह डाँट को रोकते हैं।
32 गुप्त प्रज्ञा और अनदेखा ख़ज़ाना ये दोनों किस काम के होते हैं?
33 अपनी प्रज्ञा छिपाये रखने वाले मनुष्य की अपेक्षा अपनी मूर्खता छिपाने वाला मनुष्य अच्छा है।