प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 33
1 जो प्रभु पर श्रद्धा रखता, उस पर विपत्ति नहीं पड़ेगी। प्रभु हर संकट में उसकी रक्षा करेगा और उसे सब बुराइयों से बचायेगा।
2 प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति आज्ञाओें और धर्माचरण से घृणा नहीं करता; वह आँधी में जहाज़ की तरह हचकोले नहीं खाता।
3 समझदार व्यक्ति प्रभु के वचन पर निर्भर रहता और संहिता को देववाणी समझता है।
4 अपने भाषण की तैयारी करो और लोग तुम को ध्यान से सुनेंगे। प्राप्त ज्ञान पर विचार करने के बाद ही उत्तर दो।
5 मूर्ख का हृदय गाड़ी के पहिये-जैसा है और उसका चिन्तन घूमती धुरी-जैसा।
6 उपहास करने वाला मित्र उस सवारी घोड़े जैसा है, जो हिनहिनाता है, जब कोई उस पर सवार होता है।
7 कोई दिन किसी दूसरे दिन से अधिक महत्व क्यों रखता है, जब कि वर्ष भर के दिन सूर्य से ही प्रकाश पाते हैं?
8 प्रभु की प्रज्ञा उन में अन्तर उत्पन्न करती है।
9 उसने विभिन्न ऋतुएँ और पर्व निर्धारित किये।
10 उसने कुछ दिनों को महत्व दे कर पवित्र किया और कुछ को साधारण दिनों की श्रेणी में रखा। मिट्टी से सब मनुष्यों की उत्पत्ति हुई और पृथ्वी से आदम की सृष्टि हुई।
11 प्रभु ने अपनी अपार प्रज्ञा से उन्हें असमान बनाया और उनके लिए भिन्न-भिन्न मार्ग निर्धारित किये।
12 उसने कुछ को आशीर्वाद दिया और महान् बनाया, कुछ को पवित्र किया और अपने निकट आने दिया और कुछ को अभिशाप दिया, नीचा दिखाया और उनके स्थान से उन्हें गिराया।
13 जैसे कुम्हार अपने हाथ से मिट्टी गढ़ता और अपनी इच्छा के अनुसार उसे आकार देता है,
14 वैसे ही सृष्टिकर्ता का हाथ मनुष्य को अपने निर्णय के अनुसार बनाता है।
15 जिस तरह बुराई और भलाई में, मृत्यु और जीवन में विरोध होता है, उसी तरह सद्धर्मी और पापी में। इस प्रकार सर्वोच्च प्रभु की सब कृतियों में परस्पर-विरोधी दो-दो तत्व देखो।
16 मैं तो सब के बाद जागा और अंगूर तोड़ने वाले के पीछे अंगूर बटोरता हूँ;
17 किन्तु प्रभु के आशीर्वाद से मैं आगे बढ़ा और दूसरों की तरह मैंने अपना अंगूर कुण्ड भर दिया।
18 यह समझो कि मैंने अपने लिए ही नहीं, बल्कि उन सब के लिए परिश्रम किया, जो शिक्षा की खोज में लगे रहते हैं।
19 प्रजा के शासको! मेरी बात सुनो, सभा के नेताओ! ध्यान दो।
20 तुम अपने जीवनकाल में किस को अपने ऊपर अधिकार मत दो- न तो अपने पुत्र को, न अपनी पत्नी, अपने भाई और अपने मित्र को। किसी दूसरे को अपनी सम्पत्ति मत दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम को पछतावा कर उसे वापस माँगना पड़े।
21 जब तक जीते और साँस लेते हो, किसी को अपने ऊपर हावी न होने दो।
22 अपने पुत्रों की इच्छा पर निर्भर रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि तुम्हारे पुत्र तुम से माँगें।
23 अपने सभी कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करो।
24 अपने नाम पर कलंक न लगने दो जब तुम्हारे अन्तिम दिन आ गये और तुम्हारी मृत्यु की घड़ी आ पहुँची, तो अपनी विरासत बाँट दो।
25 गधे के लिए चारा, लाठी और बोझ; दास के लिए रोटी, दण्ड और परिश्रम।
26 नौकर को काम में लगाओे ओर तुम को आराम मिलेगा। उसके हाथ ढीले पड़ने दो और वह मुक्त होना चाहेगा।
27 जूआ और लगाम गर्दन झुकाती है। कठोर परिश्रम नौकर को अनुशासन में रखता है।
28 टेढ़े नौकर के लिए यन्त्रणा और बेड़ियाँ! उसे काम में लगाओे, नहीं तो वह आलसी बनेगा।
29 आलस्य अनेक बुराइयों की जड़ है।
30 उसे ऐसे काम में लगाओ, जो उसके योग्य हो। यदि वह आज्ञा नहीं मानता, तो उसे बेड़ियाँ पहनाओ, किन्तु किसी से औचित्य से अधिक काम मत लो और किसी के साथ अन्याय मत करो।
31 यदि तुम्हारे एक नौकर हो, तो उसे अपने जैसा समझो; क्योंकि तुम को अपनी-जैसी उसकी आवश्यकता है। यदि तुम्हारे एक नौकर हो, तो उसके साथ भाई-जैसा व्यवहार करो। कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने रक्तबन्धु पर क्रोध करो।
32 यदि तुम उसके साथ अन्याय करोगे, तो वह तुम को छोड़ कर भाग जायेगा।
33 यदि वह भाग कर चला जाता, तो तुम उसे कहाँ ढूँढ़ोगे?