प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 37
1 प्रत्येक मित्र कहता है: “मैं भी तुम्हारा मित्र हूँ”, किन्तु कुछ लोग नाम मात्र के मित्र हैं। क्या वह दुःख मृत्यु के सदृश नहीं,
2 जब कोई अभिन्न मित्र शत्रु बन जाता है?
3 वह दुर्भाव कहाँ से उत्पन्न हुआ है, जो पृथ्वी को कपट से ढक देता है?
4 कपटी मित्र सुख में अपने मित्र का साथ देता, किन्तु विपत्ति में उसका विरोधी बन जाता है।
5 सच्चा मित्र दुःख में अपने मित्र का साथ देता और भाला उठाकर उसके शत्रु से लड़ता है।
6 अपने मन में मित्र केा मत भुलाओे और समृद्धि में भी उसे याद रखो।
7 कपटी व्यक्ति से सलाह मत लो। और ईर्ष्यालु से अपनी योजना छिपाओे।
8 प्रत्येक परामर्शदाता अपनी सम्मति अच्छी समझता है, किन्तु कुछ लोग अपने हित में परामर्श देते हैं।
9 परामर्शदाता से सावधान रहो और पहले पता करो कि उसका स्वार्थ किस में है; क्यों कि वह अपने हित में परामर्श देगा
10 और तुम से लाभ उठाने के विचार से कहेगा:
11 “आप सही मार्ग पर चलते हैं”, किन्तु किनारे से देखता है, कि तुम को क्या होगा।
12 जो तुम से बैर रखता, उस से सलाह मत माँगो और ईर्ष्यालु व्यक्ति से अपनी योजना छिपाओे। तुम न तो स्त्री से उसकी सौत के विषय में सलाह माँगो और न कायर से युद्ध के विषय में, न व्यापारी से सौदे के विषय में न ख़रीददार से बिक्री के विषय में, न विद्वेषी
13 न विधर्मी से भक्ति के विषय में, न बेईमान से ईमानदारी के विषय में, न आलसी से किसी काम के विषय में,
14 न ठेके के मज़दूर से किसी काम की समाप्ति के विषय में और न आलसी नौकर से कठिन काम के विषय में। इन लोगों के किसी परामर्श पर निर्भर मत रहो,
15 किन्तु धार्मिक व्यक्ति की संगति करो, जिसके विषय में तुम जानते हो कि वह आज्ञाओें का पालन करता है,
16 जिसका स्वभाव तुम्हारे स्वभाव से मेल खाता है और जब तुम लड़खड़ाते हो, तो वह तुम से सहानुभूति रखेगा।
17 अपने अन्तःकरण पर भी ध्यान दो, क्यों कि वह तुम्हारे प्रति किसी से भी अधिक ईमानदार है।
18 ऊँची मीनार पर बैठने वाले पहरेदारों से भी अधिक मनुष्य को अधिक जानकारी अन्तःकरण देता है।
19 सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम सर्वोच्च प्रभु से प्रार्थना करो, जिससे वह तुम को सत्य के मार्ग पर ले चले।
20 प्रत्येक योजना विचार-विमर्श से प्रारम्भ होती है, और प्रत्येक कार्य सोच-विचार से।
21 हृदय में विचारों की जड़ है, उस में से चार डालियाँ निकलती हैं: बुराई और भलाई, जीवन और मृत्यु और इन सब पर जिह्वा शासन करती है।
22 कुछ अनुभवी लोग बहुतों को शिक्षा देते हैं, किन्तु अपनी आत्मा के लिए किसी काम के नहीं।
23 कुछ विद्वान् अपने शब्दों द्वारा अपने प्रति बैर उत्पन्न करते हैं और इस कारण स्वादिष्ट भोजन से वंचित रहते हैं।
24 प्रभु ने उन्हें लोकप्रियता का वरदान नहीं दिया; उन पर रत्ती भर प्रज्ञा नहीं।
25 कुछ लोग अपनी बुद्धि से लाभ उठाते और अपनी बुद्धि के फल से अपना शरीर पुष्ट करते हैं।
26 प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति अपने लोगों को शिक्षा देता है और उसकी बुद्धि का परिणाम चिरस्थायी है।
27 प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति को सभी आशीर्वाद देते हैं और जो उसे देखते, वे उसे धन्य कहते हैं।
28 मनुष्य के दिन गिने जा सकते हैं, किन्तु इस्राएल के दिन असंख्य हैं।
29 प्रज्ञासम्पन्न व्यक्ति को अपने लोगों से सम्मान मिलेगा और उसका नाम सदा जीवित रहेगा।
30 पुत्र! अपने जीवनकाल में अपने आचरण पर विचार करो। देखो कि तुम्हारे लिए क्या अहितकर है और उस से अपने को दूर रखो;
31 क्यों कि सब कुछ सबों के लिए हितकर नहीं है और सभी की सब कुछ में रुचि नहीं।
32 हर सुख के लालची मत बनो और स्वादिष्ट भोजन पर मत टूटो।
33 अधिक भोजन करने से मनुष्य अस्वस्थ्य हो जाता और पेटूपन से मिचली आती है।
34 अधिक खाने से बहुतों की मृत्यु हो गयी और जो संयम रखता है, वह अपने दिनों की संख्या बढ़ाता है।