प्रवक्ता ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42 • 43 • 44 • 45 • 46 • 47 • 48 • 49 • 50 • 51 • पवित्र बाईबल
अध्याय 51
1 प्रभु! मेरा राजा! मैं तुझे धन्य कहूँगा। ईश्वर! मेरे मुक्तिदाता! मैं तेरी स्तुति करूँगा।
2 मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ; क्येांकि तू मेरी रक्षा और सहायता करता रहा।
3 तूने मुझे सर्वनाश से, छल-कपट करने वालों के फन्दे से और झूठ बोलने वालों के षड्यन्त्र से बचाया है। तू मेरे शत्रुओें के विरुद्ध मेरा सहारा रहा।
4 अपनी असीम दया तथा महिमामय नाम के अनुरूप तूने इन सब बातों से मेरी रक्षा की है-
5 भक्षकों के दाँतों से, हत्या पर उतारू लोगों के पंजों से, आ पड़ने वाली असंख्य विपत्तियों से,
6 घेरने वाली आग के धुएँ से, उस अग्नि-ज्वाला से, जिसे मैंने नहीं जलाया,
7 अधोलोक के गर्त से, कपटी जीभ की निन्दा से और मुझ पर लगाये हुए मिथ्यावाद से।
8 मृत्यु मेरे निकट आ गयी थी,
9 मैं अधोलोक के फाटक तक पहुँच गया था।
10 उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया था। मेरा कोई सहायक नहीं था। कोई भी मनुष्य मुझे सँभालने के लिए तैयार नहीं था।
11 प्रभु! तब मैंने तेरी दयालुता और पहले किये हुए तेरे कार्यों का स्मरण किया-
12 तू अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता और उन्हें उनके शत्रुओं के पंजे से छुड़ाता है।
13 मैंने पृथ्वी पर से प्रभु की दुहाई दी और मृत्यु से रक्षा की प्रार्थन की।
14 मैने कहा, “प्रभु! तू मेरा पिता है! घमण्डी शत्रुओं के सामने, मुझे विपत्ति के दिन, असहाय नहीं छोड़।
15 मैं निरन्तर तेरा नाम धन्य कहूँगा, मैं धन्यवाद के गीत गाता रहूँगा।” मेरी प्रार्थना सुनी गयी,
16 क्योंकि तूने मुझे विनाश से बचाया और विपत्ति से मेरा उद्धार किया।
17 इस कारण मैं तेरा धन्यवाद और तेरी स्तुति करूँगा, मैं प्रभु का नाम धन्य कहूँगा।
18 अपनी यात्राएँ प्रारम्भ करने से पहले मैं युवावस्था में आग्रह के साथ प्रज्ञा के लिए प्रार्थना करता था।
19 मैं मन्दिर के प्रांगण में उसके लिए अनुरोध करता था और अन्त तक उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहूँगा। वह फलते-फूलते हुए अंगूर की तरह मुझ में विकसित हो कर
20 मुझे आनन्दित करती रही। मैं सीधे मार्ग पर आगे बढ़ता गया और बचपन से ही प्रज्ञा का अनुगामी बना।
21 मैंने थोड़े समय तक उस पर कान दिया था।
22 और मुझे प्रचुर मात्रा में शिक्षा मिली। मैं उसी के कारण प्रगति कर सका।
23 जिसने मुझे प्रज्ञा प्रदान की है, मैं उसकी महिमा करूँगा।
24 मैंने प्रज्ञा के अनुसार आचरण करने का निश्चय किया। मैं भलाई करता रहा। मुझे कभी लज्जित नहीं होना पड़ेगा।
25 मैं प्रज्ञा प्राप्त करने के लिए पूरी शक्ति से प्रयास करता रहा। और संहिता के पालन में ईमानदार रहा।
26 मैंने आकाश की ओर हाथ ऊपर उठाया और अपनी नासमझी पर दुःख प्रकट किया।
27 मै उत्सुकता से प्रज्ञा को खोजता रहा और अपने सदाचरण के कारण मैंने उसे पाया।
28 मुझे प्रारम्भ से उसके द्वारा विवेक मिला, इसलिए मुझे कभी परित्यक्त नहीं किया जायेगा।
29 मैं पूरी शक्ति से उसकी खोज करता रहा और मुझे एक अमूल्य निधि प्राप्त हुई।
30 प्रभु ने पुरस्कार के रूप में मुझे कुशल जिह्वा प्रदान की और मैं उस से उसका यश गाऊँगा।
31 तुम, जो अशिक्षित हो, मेरे पास आओे और शिक्षा के घर में एकत्र हो जाओ।
32 देर क्यों करते हो, जब कि तुम्हारी आत्माएँ उसके लिए तरस रही हैं?
33 मैं मुँह खोल कर बोलता हूँ :“मुफ़्त में प्रज्ञा प्राप्त करो।
34 तुम जूए के नीचे गरदन झुकाओे। तुम्हारा हृदय शिक्षा ग्रहण करे; क्येांकि वह तुम्हारे लिए प्रस्तुत है।
35 तुम अपनी आँखों से देख सकते हो कि मुझे उसके लिए कम परिश्रम करना पड़ा और मुझे बहुत शान्ति मिली
। 36 शिक्षा ग्रहण करो; तुम उसके द्वारा बहुत चाँदी और सोना प्राप्त करोगे।
37 तुम प्रभु की दया के कारण आनन्द मनाओ और उसकी स्तुति करने में लज्जा का अनुभव मत करो।
38 समय समाप्त होने से पहले अपना कार्य पूरा करो और समय आने पर प्रभु तुम को पुरस्कार प्रदान करेगा।”