अय्यूब(योब) का ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42• पवित्र बाइबल
अध्याय 6
1 तब अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहाः
2 यदि मेरी वेदना तौली जा सकती, यदि मेरी विपत्ति तराजू पर रखी जाती,
3 तो वह समुद्र के बालू से भी अधिक भारी होती! यही कारण है कि मैं बिना सोचे-समझे बोला हूँ।
4 सर्वशक्तिमान् के बाण मुझे बेधते हैं, मेरी साँस उनका विष पीती है। ईश्वर के आंतक मेरे विरुद्ध पंक्तिबद्ध खड़े हैं।
5 क्या जंगली गधा घास होने पर भी रेंकता है? क्या बैल सानी के सामने रँभाता है?
6 क्या फीका भोजन बिना नमक के खाया जाता है? क्या अण्डे की सफे़दी में स्वाद होता है?
7 मुझे अपने भोजन से घृणा होती है; वह मुझ से नहीं खाया जाता।
8 ओह! यदि मेरी प्रार्थना सुनी जाती! यदि ईश्वर मेरी आशा पूरी करता!
9 यदि ईश्वर मुझे रौंद डालता! यदि वह अपना हाथ खींच कर मेरा विनाश करता!
10 तो मैं असह्य पीड़ा में भी आनन्दित होता मुझे यह सान्त्वना मिलती कि मैंने परमपावन की वाणी नहीं भुलायी है।
11 मेरा सामर्थ्य ही क्या है, जो मैं आशा रखूँ? मेरा भविष्य क्या है, जो मैं जीवित रहना चाहूँ?
12 क्या मेरा बल चट्टान का बल है? क्या मेरा शरीर काँसे का है?
13 मुझ में कोई बल शेष नहीं रहा और मेरा कोई सहायक नहीं।
14 निराशा में मनुष्य मित्रों की दया का अधिकारी है, नहीं तो वह सर्वशक्तिमान् पर श्रद्धा नहीं करेगा।
15 मेरे भाई नदियों की तरह अविश्वसनीय हैं, जलधाराओं की तरह, जो बह जाती हैं,
16 जो वर्षा के समय चारों ओर उमडती हैं,
17 किन्तु बाद में सूखने लगतीं और ग्रीष्म-ऋतु में लुप्त हो जाती हैं।
18 उनकी खोज में कारवाँ अपना रास्ता छोड़ कर उजाड़खण्ड में भटक कर नष्ट हो जाते हैं।
19 तेमा के कारवाँ उनकी खोज में निकले, शबा के काफ़िलों को उन पर भरोसा था।
20 वे अपनी आशा व्यर्थ समझ कर दुःखी हैं, वहाँ पहुँच कर वे हैरान हो जाते हैं।
21 इसी तरह तुम भी मेरे किसी काम के नहीं, मेरी विपत्ति देख कर तुम डरते हो।
22 क्या मैंने कभी तुम से कहा- “मेरी सहायता करो; अपनी सम्पत्ति से मुझे छुड़ा लो,
23 शत्रु के हाथ से मुझे मुक्त करो, शक्तिशालियों के हाथ से मेरा उद्धार करो”?
24 मुझे शिक्षा दो और मैं मौन रहूँगा, मुझे समझा दो कि मेरा अपराध क्या है।
25 सच्ची बातों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु तुम्हारे तर्काें का कोई आधार नहीं होता।
26 क्या तुम मेरे शब्दों में दोष निकालना चाहते हो? क्या तुम नहीं समझते कि ये निराशा के उद्गार हैं?
27 हो सका, तो तुम अनाथ पर भी चिट्ठी डालते और अपने अन्तरंग मित्र का सौदा करते।
28 मेरी बातों पर ध्यान देने की कृपा करो! क्या मैं तुम्हारे सामने झूठ बोलूंँगा?
29 अभियोग लगाना छोड़ दो, अन्याय न करो! छोड़ दो। मेरे साथ न्याय करो।
30 क्या मेरी जिह्वा झूठ बोलती है? क्या मुझ में भले-बुरे की पहचान नहीं?