अय्यूब(योब) का ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31 • 32 • 33 • 34 • 35 • 36 • 37 • 38 • 39 • 40 • 41 • 42• पवित्र बाइबल
अध्याय 9
1 अय्यूब ने अपने मित्रों से कहा:
2 मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि तुम लोगों का कहना सच है। मनुष्य अपने को ईश्वर के सामने निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकता।
3 यदि वह ईश्वर के साथ बहस करना चाहेगा, तो ईश्वर हज़ार प्रश्नों में एक का भी उत्तर नहीं देगा।
4 ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्मिान् है। कौन मनुष्य उसका सामना करने के बाद जीवित रहा?
5 ईश्वर पर्वतों को अचानक हटाता और अपने क्रोध में उलट देता है।
6 वह पृथ्वी को उसके स्थान से खिसकाता और उसके खम्भों को हिला देता है।
7 वह नक्षत्रों को ढाँकता और उसके आदेश पर सूर्य दिखाई नहीं देता।
8 वह अकेला ही आकाश फैलाता और समुद्र की लहरों पर चलता है।
9 उसने सप्तर्षि, मृग, कृत्तिका और दक्षिण नक्षत्रों की सृष्टि की है।
10 वह महान् एवं रहस्यमय कार्य सम्पन्न करता और असंख्य चमत्कार दिखाता है।
11 वह मेरे पास आता है और मैं उसे नहीं देखता। वह आगे बढ़ता है और मुझे इसका पता नहीं चलता।
12 जब वह कुछ ले जाता है, तो कौन उसे रोकेगा? कौन उस से कहेगा, “तू यह क्या कर रहा है?”
13 ईश्वर के क्रोध पर किसी का वश नहीं, रहब के सहायक भी उसके अधीन हैं।
14 मैं उस को कैसे जवाब दे सकता हूँ? मुझे उस से बहस करने को शब्द कहाँ से मिलेंगे?
15 यदि मेरा पक्ष न्यायसंगत है, तो भी मैं क्या कहूँ? मैं केवल दया-याचना ही कर सकता हूँ?
16 यदि वह मेरी दुहाई का उत्तर देता, तो मुझे विश्वास नहीं होता कि वह मेरी प्रार्थना पर ध्यान देता है।
17 वह तूफ़ान से मुझे रौंदता और अकारण मेरे घाव बढ़ाता है।
18 वह मुझे साँस भी नहीं लेने देता और मुझे कटु वेदना से भरता है।
19 बलपरीक्षा का प्रश्न नहीं उठाता, क्योंकि वह बलवान् है।
20 यदि मैं निर्दोष होता, तो भी दोषी ठहराता। यदि मैं निरपराध होता, तो भी अपराधी सिद्ध होता।
21 मैं स्वयं नही जानता कि मैं निर्दोष हूँ। मुझे अपने जीवन से घृणा हो गयी है।
22 दोषी-निर्दोष बराबर हैं। इसलिए कहता हूँ – वह दोनों का समान रूप से विनाश करता हैं।
23 जब महाविपत्ति अचानक मनुष्यों को मारती, तो वह धर्मियों की निराशा का उपहास करता।
24 जब कोई देश दुष्टों के हाथ में पड़ जाता, तो वह न्यायाधीशों की आँखों पर पट्टी बांँधता। यदि वह नहीं करता, तो वह कौन करता है?
25 मेरे दिन हरकारे से भी तेज़ भागते हैं, वे बिना आनन्द देखे लुप्त हो गये हैं।
26 वे सरकाण्डे की नावों की तरह गुज़र गये, शिकार पर झपटते हुए बाज़ की तरह।
27 यदि मैं कहता, “मैं अपनी शिकायतें भुलाऊँगा, मैं अपनी उदासी भूल कर प्रसन्नमुख होऊँगा”,
28 तब भी मैं अपने सब कष्टों से भयभीत रहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि तू मुझे निर्दोष नहीं मानेगा।
29 यदि में दोषी हूँ, तो मैं क्यों व्यर्थ ही परिश्रम करूँ?
30 यदि मैं बर्फ़ के पानी से नहाता और खार से अपने हाथ साफ़ करता,
31 तो तू मुझे कीचड़ के गड्ढे में डालता और मेरे कपड़े मुझ से घृणा करने लगते।
32 वह तो मुझ-जैसा मनुष्य नहीं, जो मैं उस से बहस करता और हम दोनों न्याय के लिए न्यायालय जाते!
33 हम दोनों का तो कोई मध्यस्थ नहीं, जो हम दोनों के बीच न्याय करे,
34 जो मुझ पर से ईश्वर का अंकुश हटाये और मैं आतंक के कारण मौन न रहूँ।
35 यदि कोई होता, तो मैं निर्भय हो कर अपना पक्ष प्रस्तुत करता; किन्तु ऐसा कोई नहीं है और मैं कुछ नहीं कर सकता।