पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 2:1-3,7-8,12-13

1) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी –

2) “जाओ और येरुसालेम को यह सन्देश सुनाओ। प्रभु यह कहता हैः मुझे तेरी जवानी की भक्ति याद है, जब तू मुझे नववधू की तरह प्यार करती थी। तू मरुभूमि में, बंजर भूखण्ड में मेरे पीछे-पीछे चलती थी।

3) उस समय इस्राएल प्रभु की अपनी पवित्र वस्तु था, उसकी फ़सल के प्रथम फल। जो उस में कुछ लेने का साहस करते थे, उन्हें दण्ड दिया जाता था, उन पर विपत्ति आ पड़ती थी।“ यह प्रभु की वाणी है।

7) में तुम लोगों को एक उपजाऊ भूमि में ले आया। मैंने तुम्हें उसके उत्तम फलों से तृप्त किया। किन्तु तुम लोगों ने उस में प्रवेश करते हुए उसे अपवत्रि कर दिया, जिससे मुझे अपनी विरासत से घृणा हो गयी है।

8) याजकों को प्रभु की कोई चिन्ता नहीं थी। संहिता के शास्त्री मेरी कोई परवाह नहीं करते थे। शासक मेरे विरुद्ध विद्रोह करते थे। नबी, बाल के नबी बन कर, ऐसे देवताओं के अनुयायी हो जाते थे, जिन से कोई लाभ नहीं।“

12) आकाश इस पर आश्चर्य करे और विस्मित हो कर काँपें।“ यह प्रभु की वाणी है।

13) “मेरी प्रजा ने दो अपराध कर डालेः उसने मुझे, संजीवन जल के स्त्रोत को त्याग दिया और अपने लिए ऐसे कुण्ड बनाये, जिन में दरारें हैं और जिन में पानी नहीं ठहरता।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:10-17

10) ईसा के शिष्यों ने आ कर उन से कहा, ’’आप क्यों लोगों को दृष्टान्तों में शिक्षा देते हैं?‘‘

11) उन्होंने उत्तर दिया, ’’यह इसलिए है कि स्वर्गराज्य का भेद जानने का वरदान तुम्हें दिया गया है, उन लोगों को नहीं;

12) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा। लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उससे वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

13) मैं उन्हें दृष्टान्तों में शिक्षा देता हूँ, क्योंकि वे देखते हुए भी नहीं देखते और सुनते हुए भी न सुनते और न समझते हैं।

14) इसायस की यह भविष्यवाणी उन लोगों पर पूरी उतरती है- तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा;

15) क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहते; इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ।

16) परन्तु धन्य हैं तुम्हारी आँखें, क्योंकि वे देखती हैं और धन्य हैं तुम्हारे कान, क्योंकि वे सुनते हैं!

17) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और धर्मात्मा देखना चाहते थे; परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और तुम जो बातें सुन रहो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।