सूक्ति-ग्रन्थ
अध्याय : 1 • 2 • 3 • 4 • 5 • 6 • 7 • 8 • 9 • 10 • 11 • 12 • 13 • 14 • 15 • 16 • 17 • 18 • 19 • 20 • 21 • 22 • 23 • 24 • 25 • 26 • 27 • 28 • 29 • 30 • 31
अध्याय 23
1 यदि तुम किसी शासक के यहाँ भोजन करते हो, तो ध्यान रखो कि तुम्हारे सामने कौन बैठा है।
2 यदि तुम्हें पेटूपन की लत हो, तो अपने पर संयम रखो।
3 उसके स्वादिष्ट व्यंजनों का लालच मत करो; क्योंकि वह धोखे का भोजन है।
4 धनी बनने के लिए परिश्रम मत करोः यह विचार अपने मन से निकाल दो।
5 तुम धन पर आँख लगाते हो, तो वह लुप्त हो जाता है; क्योंकि उसके पंख निकल जाते हैं। और वह गरुड़ की तरह आकाश की ओर उड़ जाता है।
6 कंजूस के यहाँ भोजन मत करो। उसके स्वादिष्ट व्यंजनों का लालच मत करो:
7 क्योंकि वह वैसा ही है, जैसा मन में सोच रहा है। वह तो तुम से कहता है: “खा-पी लीजिए”, किन्तु उसका हृदय तुम्हारे साथ नहीं है।
8 तुमने जो भोजन खाया, उसे उगल दोगे और कंजूस से कही हुई मीठी बातें व्यर्थ होंगी।
9 मूर्ख को सम्बोधित मत करो। वह तुम्हारी ज्ञान की बातों का तिरस्कार करेगा।
10 खेत का पुराना सीमा-पत्थर मत हटाओे और अनाथों के खेत पर पैर मत रखो;
11 क्योंकि उनका उद्धारक समर्थ है। वह तुम्हारे विरुद्ध उनका पक्ष लेगा।
12 शिक्षा में मन लगाओे। ज्ञानियों की बातों को कान लगा कर सुनो।
13 युवक को दण्ड देने से मत हिचको, यदि तुम उसे छड़ी लगाओगे, तो वह मरेगा नहीं,
14 बल्कि उसे छड़ी लगाने से तुम अधोलोक से उसकी रक्षा करोगे।
15 पुत्र! यदि तुम्हारे हृदय में प्रज्ञा का वास है, तो मेरा हृदय भी आनन्दित होता है।
16 यदि तुम विवेकपूर्ण बातें करते हो, तो मेरा अन्तरतम उल्लसित हो उठता है।
17 अपने हृदय में पापियों से ईर्ष्या मत करो, बल्कि दिन भर प्रभु पर श्रद्धा रखो।
18 इस प्रकार तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है और तुम्हारी आशा व्यर्थ नहीं जायेगी।
19 पुत्र! सुनो, प्रज्ञ बनो और सन्मार्ग पर सीधे आगे बढ़ो।
20 शराबियों की संगति मत करो और न उन लोगों की, जो मांस बहुत खाते हैं;
21 क्योंकि शराबी और पेटू दरिद्र हो जाते हैं; उनींदापन उन्हें चिथड़े पहनाता है।
22 अपने पिता, अपने जन्मदाता की बात सुनो और अपनी बूढ़ी माता का तिरस्कार मत करो।
23 सत्य ख़रीदो, उसका सौदा मत करो। प्रज्ञा, अनुशासन और समझदारी खरीदो।
24 धर्मी के पिता को आनन्द होगा; बुद्धिमान् का जन्मदाता उस पर प्रसन्न होगा।
25 तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे कारण आनन्द मनायें, तुम्हारी जननी उल्लसित हो।
26 पुत्र! मेरी बातों पर ध्यान दो; तुम्हारी आँखें मेरे आचरण पर टिकी रहें।
27 वेश्या गहरा गड्ढा है और परस्त्री सँकरा कूआँ।
28 वह डाकू की तरह घात में बैठती है और बहुत-से पुरुषों को व्यभिचारी बना लेती है।
29 कौन दुःखी है? कौन शोक मनाता है? कौन झगड़ा लगाता है? कौन शिकायत करता है? कौन अकारण घायल हो जाता है? किसकी आंँखें लाल हैं?
30 यह उनकी दशा है, जो देर तक अंगूरी पीते हैं; जो मिश्रित अंगूरी के प्याले चखते रहते हैं।
31 लाल-लाल अंगूरी पर दृष्टि मत लगाओ, जो प्याले में बुदबुदाती है। वह पीते समय मधुर लगती है,
32 किन्तु अन्त में साँप की तरह डँसती और करैत की तरह विष उगलती है।
33 तुम्हारी आँखें बड़ा विचत्रि दृश्य देखेंगी और तुम उल्टी-सीधी बातें करोगे।
34 तुम खुले समुद्र पर यात्रा करने वाले व्यक्ति के समान होगे, जो मस्तूल के शिखर पर सोया हुआ है।
35 तुम कहोगे: “उन्होंने मुझे मारा, किन्तु मुझे चोट नहीं लगी। उन्होंने मेरी पिटाई की, किन्तु मुझे इसका पता नहीं चला। मुझे कब होश होगा? तब मैं फिर पिऊँगा।”