स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय : 1234567891011121314151617181920212223242526272829303132333435363738394041424344454647484950515253 54555657585960616263646566676869707172737475767778798081828384858687888990919293949596979899100101102103104105106107108109 110111112113114115116117118119120121122123124125126127128129130131132133134135136137138139140141142143144145146147148149150पवित्र बाईबल

स्तोत्र 107

1 अल्लेलूया! प्रभु की स्तुति करो, क्योंकि वह भला है। उसका प्रेम अनन्त काल तक बना रहता है।

2 वे लोग यह कहते रहें, जिनका प्रभु ने उद्धार किया; जिन्हें उसने शत्रु के पंजे से छुड़ाया;

3 जिन्हें उसने पूर्व और पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, दूर-दूर देशों से एकत्र कर लिया।

4 कुछ लोग उजाड़ प्रदेश और मरुभूमि में भटक गये थे। उन्हें बसे हुए नगर का रास्ता नहीं मिल रहा था।

5 वे भूखे और प्यासे थे। उनके प्राण निकल रहे थे।

6 उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।

7 वह उन्हें सीधे रास्ते से ले गया और वे बसे हुए नगर तक पहुँचे।

8 वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए:

9 क्योंकि उसने प्यासे को पिलाया और भूखे को तृप्त किया।

10 कुछ लोग अन्धकार और मृत्यु की छाया में बैठे थे, दुःखी और बेड़ियों से जकड़े हुए;

11 क्योंकि उन्होंने ईश्वर की वाणी से विद्रोह और सर्वोच्च प्रभु की योजना का तिरस्कार किया था।

12 उसने उन्हें घोर कष्ट दिलाया। वे विचलित हुए, उनका कोई सहायक नहीं रहा।

13 उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।

14 उसने अन्धकार और मृत्यु की छाया से उन्हें निकाला; उसने उनके बन्धन तोड़ डाले।

15 वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए;

16 क्योंकि उसने काँसे के द्वार तोड़ दिये और लोहे की अर्गलाओं के टुकड़े कर डाले।

17 कुछ लोग अपने कुकर्मों के कारण बीमार पड़ गये थे। वे अपने पापों के कारण कष्ट झेल रहे थे।

18 वे हर प्रकार के भोजन से घृणा करते थे |और मृत्यु के द्वार तक पहुँच गये थे।

19 उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने उन्हें विपत्ति से उनका उद्धार किया।

20 उसने अपनी वाणी भेज कर उन्हें स्वस्थ किया और क़ब्र से उनका उद्धार किया।

21 वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्यों के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए।

22 वे धन्यवाद का बलिदान चढ़ायें और आनन्द के गीत गाते हुए उसके कार्य घोषित करें।

23 कुछ लोग जहाज़ पर चढ़ कर यात्रा करते थे। वे महासागर के उस पार व्यापार करते थे।

24 उन्होंने प्रभु के कार्य देखे, सागर की गहराइयों में उसके चमत्कार।

25 उसके कहने पर आँधी आयी, ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं।

26 वे आकाश तक चढ़ कर गहरे गर्त में उतरे, संकट में उनका साहस टूट गया।

27 वे डगमगाते थे, शराबी की तरह लड़खड़ाते थे। उनकी बुद्धि काम नहीं कर पा रही थी।

28 उन्होंने अपने संकट में प्रभु की दुहाई दी और उसने विपत्ति से उनका उद्धार किया।

29 उसने आँधी को शान्त किया और लहरें थम गयीं।

30 उस शान्ति को देख कर वे आनन्दित हो उठे और प्रभु ने उन्हें मनचाहे बन्दरगाद तक पहुँचा दिया।

31 वे प्रभु को धन्यवाद दें- उसके प्रेम के लिए और मनुष्य के कल्याणार्थ उसके चमत्कारों के लिए।

32 वे भरी सभा में उसे धन्य कहें और बड़े-बूढ़ों की बैठक में उसकी स्तुति करें।

33 वह निवासियों के अधर्म के कारण नदियों को बंजर भूमि, जलस्रोतों को सूखी ज़मीन और उपजाऊ भूमि को लवणकच्छ बना देता है।

35 वह मरूभूमि को जलाशय और सूखी ज़मीन को जलस्रोत बना देता है।

36 वहाँ वह भूखों को बसाता है और वे उस में अपने लिए नगर बनाते हैं।

37 वे खेत बोते, दाखबारी लगाते और उन से अच्छी फ़सल पाते हैं।

38 ईश्वर उन्हें आशीर्वाद देता है- उनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ती है। वह उनके पशु-धन का ह्रास नहीं होने देता।

39 बाद में उनकी संख्या घट जाती है और वे अत्याचार, विपत्ति और दुःख के कारण दब जाते हैं।

40 वह उनके शासकों को नीचा दिखाता और उन्हें पंथ-विहीन बंजर भूमि में भटकाता है;

41 किन्तु वह दरिद्रों का दुःख दूर करता और उनके परिवारों को झुण्ड की तरह बढ़ाता है।

42 धर्मी यह देख कर आनन्दित होते हैं और विधर्मियों का मुँह बन्द हो जाता है।

43 जो बुद्धिमान है, वह इन बातों पर ध्यान दे और प्रभु की अनुकम्पा का मनन करे।