स्तोत्र ग्रन्थ

अध्याय : 1234567891011121314151617181920212223242526272829303132333435363738394041424344454647484950515253 54555657585960616263646566676869707172737475767778798081828384858687888990919293949596979899100101102103104105106107108109 110111112113114115116117118119120121122123124125126127128129130131132133134135136137138139140141142143144145146147148149150पवित्र बाईबल

स्तोत्र 109

1 ईश्वर! मैं तेरी स्तुति करता हूँ। मौन न रह;

2 क्योंकि दुष्ट और कपटी लोग मेरे विरुद्ध बोले। उन्होंने मुझ पर झूठा अभियोग लगाया।

3 उन्होंने शत्रुतापूर्ण शब्द कहते हुए मुझे घेरा और मुझ पर अकारण आक्रमण किया।

4 उन्होंने मेरी मित्रता के बदले मुझ पर अभियोग लगाया, किन्तु मैं प्रार्थना करता रहा।

5 उन्होंने मुझ से भलाई का बदला बुराई से और मित्रता का बदला बैर से चुकाया।

6 प्रभु! उसका विरोध करने एक दुर्जन को नियुक्त कर। एक अभियोगकर्ता उसके दाहिने खड़ा हो।

7 वह न्यायालय में दोषी ठहरे और उसकी प्रार्थना पाप मानी जाये।

8 उसके दिन घटाये जायें, कोई दूसरा उसका पद ग्रहण करे।

9 उसकी सन्तति अनाथ और उसकी पत्नी विधवा हो।

10 उसकी सन्तति भीख माँगते हुए भटकती रहे और अपने टूटे-फूटे घर से निकाली जाये।

11 सूदख़ोर उनका सर्वस्व छीने, पराये लोग उसके परिश्रम का फल लूटें।

12 कोई उसके प्रति सहानुभूति प्रकट न करे, कोई उसके अनाथ बच्चों पर तरस न खाये।

13 उसके वंशजों का विनाश हो। उनका नाम एक ही पीढ़ी में मिट जाये।

14 प्रभु को उसके पूर्वजों के अधर्म का स्मरण दिलाया जाये। उसकी माता का पाप न मिटाया जाये।

15 प्रभु के सामने उनके पाप निरन्तर बने रहें। प्रभु पृथ्वी पर से उन लोगों की स्मृति मिटा दे;

16 क्योंकि उसने कभी किसी की भलाई नहीं की; उसने दरिद्र और निस्सहाय पर अत्याचार किया; जिसका हृदय टूट गया था, वह मृत्यु तक उसका पीछा रहा।

17 अभिशाप देना उसे प्रिय था, वह उसी पर आ पड़े। वह आशीर्वाद देना नहीं चाहता था, वह उस से दूर रहे।

18 उसने अभिशाप को चादर की तरह ओढ़ा। वह पानी की तरह उसके शरीर में, तेल की तरह उसकी हड्डियों में समा गया।

19 वह अभिशाप वस्त्र की तरह हो, जिसे वह पहनता है, कटिबन्ध की तरह, जिसे वह सदा बाँधता है।

20 मुझ पर अभियोग लगाने वालों और मेरी बुराई करने वालों को प्रभु से यही पुरस्कार मिले।

21 प्रभु-ईश्वर! अपने नाम के कारण मेरी सहायता कर। तू दयालु और प्रेममय है; मेरा उद्धार कर।

22 मैं दरिद्र और दीन-हीन हूँ। मेरा हृदय मेरे अन्तरतम में रौंद दिया गया है।

23 मैं साँझ की छाया की तरह विलीन हो रहा हूँ। मैं टिड्डी की तरह झाड़ दिया जाता हूँ।

24 उपवास के कारण मेरे घुटने काँपते हैं, मेरा शरीर सूख कर काँटा हो गया है।

25 मैं लोगों के लिए घृणा का पात्र हूँ, वे मुझे देख कर सिर हिलाते हैं।

26 प्रभु! मेरे ईश्वर! मेरी सहायता कर। अपनी दयालुता के अनुरूप मेरा उद्धार कर।

27 प्रभु! सब लोग जान जायें कि इस में तेरा हाथ है, कि तूने यह मेरे लिए किया है।

28 वे भले ही अभिशाप दें, तू आशीर्वाद देता है। मुझ पर आक्रमण करने वाले निराश हों। तेरा सेवक आनन्द मनाये।

29 मुझ पर अभियोग लगाने वाले कलंकित हों, लज्जा उन्हें चादर की तरह ढक ले।

30 मैं ऊँचे स्वर से प्रभु को धन्य कहूँगा, मैं जनसमूह में उसकी स्तुति करूँगा;

31 क्योंकि वह दरिद्र के दाहिने विद्यमान है, जिससे वह न्यायकर्ताओं से उसके जीवन की रक्षा करे।