स्तोत्र ग्रन्थ
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स्तोत्र 116
1 मैं प्रभु को प्यार करता हूँ; क्योंकि वह मेरी पुकार सुनता है।
2 मैं जीवन भर उसका नाम लेता रहूँगा; क्योंकि उसने मेरी दुहाई पर ध्यान दिया।
3 मैं मृत्यु के बन्धनों से जकड़ा और अधोलोक के फन्दों में फँसा हुआ था। मैं संकट और शोक से घिरा हुआ था।
4 तब मैंने प्रभु का नाम ले कर पुकारा: “प्रभु! मेरे प्राणों की रक्षा कर!”
5 प्रभु न्यायप्रिय और दयालु है; हमारा ईश्वर करुणामय है।
6 प्रभु निष्कपट लोगों की रक्षा करता है। मैं निस्सहाय हो गया था और उसने मेरा उद्धार किया।
7 मेरी आत्मा! तू फिर शान्त हो जा, क्योंकि प्रभु ने तेरा उपकार किया है।
8 उसने मुझे मृत्यु से छुड़ाया। उसने मेरे आँसू पोंछ डाले और मेरे पैरों को फिसलने नहीं दिया,
9 जिससे मैं जीवितों के देश में प्रभु के सामने चलता रहूँ।
10 यद्यपि मैंने कहा था, “मैं अत्यन्त दुःखी हूँ”, तब भी मैंने भरोसा नहीं छोड़ा।
11 मैंने संकट में पड़ कर यह भी कहा था, “कोई मनुष्य विश्वसनीय नहीं है”।
12 प्रभु के सब उपकारों के लिए मैं उसे क्या दे सकता हूँ?
13 मैं मुक्ति का प्याला उठा कर प्रभु का नाम लूँगा।
14 मैं प्रभु की सारी प्रजा के सामने प्रभु के लिए अपनी मन्नतें पूरी करूँगा।
15 अपने भक्तों की मृत्यु से प्रभु को भी दुःख होता है।
16 प्रभु! तूने मेरे बन्धन खोल दिये; क्योंकि मैं तेरा सेवक हूँ, तेरा सेवक, तेरी सेविका का पुत्र।
17 मैं प्रभु का नाम लेते हुए धन्यवाद का बलिदान चढ़ाऊँगा।
(18-19) येरूसालेम! मैं तेरे मध्य में ईश्वर के मन्दिर के प्रांगण में, प्रभु की सारी प्रजा के सामने प्रभु के लिए अपनी मन्नतें पूरी करूँगा। अल्लेलूया!