स्तोत्र ग्रन्थ
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स्तोत्र 84
2 (1-2) विश्वमण्डल के प्रभु! कितना रमणीय है तेरा मन्दिर!
3 प्रभु का प्रांगण देखने के लिए मेरी आत्मा तरसती रहती है। मैं उल्लास के साथ तन-मन से जीवन्त ईश्वर का स्तुतिगान करता हूँ।
4 गौरेया को बसेरा मिल जाता है, अबाबील को अपने बच्चों के लिए घोंसला। विश्वमण्डल के प्रभु! मेरे राजा! मेरे ईश्वर! मुझे तेरी वेदियाँ प्रिय हैं।
5 तेरे मन्दिर में रहने वाले धन्य हैं! वे निरन्तर तेरा स्तुतिगान करते हैं।
6 धन्य हैं वे, जो तुझ से बल पा कर तेरे पर्वत सियोन की तीर्थयात्रा करते हैं!
7 वे सूखी घाटी पार करते हुए उसे निर्झर भूमि बनाते हैं- प्रथम वर्षा उसे आशीर्वाद प्रदान करती है।
8 चलते-चलते उनका उत्साह बढ़ता है और वे सियोन में प्रभु के सामने उपस्थित होते हैं।
9 विश्वमण्डल के प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन। याकूब के ईश्वर! ध्यान देने की कृपा कर।
10 ईश्वर! हमारे रक्षक! हमारी सुधि ले, अपने अभिषिक्त पर दयादृष्टि कर।
11 हजा़र दिनों तक और कहीं रहने की अपेक्षा एक दिन तेरे प्रांगण में बिताना अच्छा है। दुष्टों के शिविरों में रहने की अपेक्षा ईश्वर के मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा होना अच्छा है;
12 क्योंकि ईश्वर हमारी रक्षा करता और हमें कृपा तथा गौरव प्रदान करता है। वह सन्मार्ग पर चलने वालों पर अपने वरदान बरसाता है।
13 विश्वमण्डल के प्रभु! धन्य है वह, जो तुझ पर भरोसा रखता है!